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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
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भावार्थ - लोक में पृथ्वी पर स्थित कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालयों, अधोभाग में भवनवासी व व्यन्तरों के निवासों में स्थित चैत्यालयों, ऊर्ध्वभाग में देव- विमानों में स्थित चैत्यालयों तथा यहाँ मनुष्य लोक में मनुष्यों द्वारा बनाये गये, इन्द्र- धरणेन्द्र आदि से पूजित जिनेन्द्र देव के पावन, वन्दनीय जिनालयों को मैं भावपूर्वक समरण करता हूँ ।
शार्दूलविक्रीडितम्
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दग्धाष्ट - कर्मेन्धनाः ।
जम्बू-धातकि- पुष्करार्ध वसुधा क्षेत्र त्रये ये भवा चंद्राम्भोज शिखण्डि कण्ठ-कनक प्रावृंघनाभाजिनाः । सम्यग्ज्ञान - चरित्र - लक्षणधरा भूतानागत- वर्तमान समये तेभ्यो जिनेभ्यो नमः || ४ || अन्वयार्थ - ( जम्बूधातकि पुष्करार्द्ध-वसुधा क्षेत्रत्रये ये भवाः ) जम्बूद्वीप, धातकीखंड और पुष्करार्द्ध द्वीप इन तीन क्षेत्रों में वसुधा तल पर जो उत्पन्न हुये हैं ( चन्द्र-अम्भोज - शिखण्डि - कण्ठकनकप्रावृङ्घनाभाः ) चन्द्रमा, कमल, मयूरकण्ठ, स्वर्ण और वर्षा ऋतु के मेघ के समान कान्ति वाले ( सम्यग्ज्ञान- चरित्र - लक्षणधराः ) सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप लक्षण के धारक ( दग्धार्ध - कर्म - ईन्धनाः ) चार घातिया कर्मरूपी ईंधन को जलाने वाले ( भूत अनागत - वर्तमान समये ) भूत-भविष्य वर्तमान काल में होने वाले जो ( जिना: ) जिनेन्द्र हैं ( तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ) उन सब जिनेन्द्रों के नमस्कार हो ।
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भावार्थ - इस वसुन्धरा पर जम्बूद्वीप, धातकीखंड और अर्ध पुष्परद्वीप इन ढाई द्वीपों में भरत ऐरावत विदेह तीन क्षेत्रों में चन्द्रसम, कमलसम, मयूरकण्ठसम, स्वर्णसम व वर्षाऋतु के मेघ सम कान्ति के धारक, रत्नत्रय मण्डित, चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले जितने अरहंत केवली भूतकाल में हो चुके हैं, जितने भावी काल में होंगे व जितने वर्तमान में हो रहे हैं, उन सबको मेरा नमस्कार हो-
श्रीमन्मेरौ कुलाद्वौ रजदतगिरिवरे शाल्मली अम्बुवृक्षे, वक्षारे चैत्यवृक्षे रतिकर- रुचके कुण्डले मानुषांके । इष्वाकारे ऽञ्जनाद्रौ दधिमुखशिखरे व्यंतरे स्वर्गलोके, ज्योतिलकेऽभिवंदे भुवनमहितले, यानि चैत्यालयानि । । ५ । ।