________________
२९५
विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका होते हैं । यहाँ इस श्लोक में समवशरण की शोभा का सुन्दर चित्रण किया गया है...समवशरण सभा में सबसे पहले मान गलित करने वाला मानस्तंभ है, उसके बाद तालाब, खातिका, प्रथम भूमि कोट, उद्यान भूमि द्वितीय कोट, नाट्यशाला, उपवन, वेदिका, ध्वजाभूमि, कोट, कल्पवृक्ष भूमि, कोट, स्तूप और प्रासादों की पंक्तियाँ इस प्रकार स्तूप-कोट व सातभूमियाँ है। पश्चात् स्फटिक की दीवालों से सुशोभित बारह समाएँ हैं उनमें-मुनि, कल्पवासी देवियाँ, आर्यिकाएँ, भवनवासी देवियाँ, व्यन्तरवासी देवियाँ, ज्योतिषी देवियाँ, ज्योतिषी देव, भवनवासी देव, कल्पवासी देव, मनुष्य व तिर्यञ्च विराजमान हो शोभा को प्राप्त होते हैं। उसके भी आगे मेखला है जिसमें भी तीन कटनियाँ हैं । तीसरी कटनी पर सिंहासन है ! उस सिंहासन पर चार अंगुल ऊपर साक्षात् केवलज्ञानी तीर्थंकर प्रकृति से विशिष्ट साक्षात् अरहन्त जिनेन्द्र विराजमान रहते हैं।
लघु चैत्य भक्तिः
इन्द्रवना
वर्षेषु वर्षान्तर पर्वतेषु, नन्दीश्वरे यानि च मंदरेषु । यावन्ति चैत्यायतनानि लोके, सर्वाणि वन्दे जिनपुंगवानाम् ।।२।।
अन्वयार्थ ( लोके ) तीनों लोक-ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोक में ( जिनपुङ्गवानां ) जिनेन्द्र भगवन्तों के ( वर्षेषु ) भरत-ऐरावत आदि क्षेत्रों में ( वर्षान्तर-पर्वतेषु ) भरत आदि क्षेत्रों के मध्य स्थित कुलाचल/पर्वतों पर ( नन्दीश्वरे ) नन्दीश्वरद्वीप में और ( मन्दरेषु ) पाँच मेरु पर्वतों पर ( यावन्ति ) जितने ( च ) और ( यानि ) जो ( चैत्य-आयतनानि ) चैत्यालय हैं ( तानि सर्वाणि ) उन सब को ( वन्दे ) नमस्कार करता हूँ। __ भावार्थ-तीनों लोकों में—ऊर्ध्वलोक में सौधर्म स्वर्ग में ३२ लाख, ईशान स्वर्ग में २८ लाख, सनतकुमार स्वर्ग में १२ लाख, महेन्द्र स्वर्ग में ८ लाख, ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में ४ लाख, लान्तव, कापिष्ठ स्वर्ग में ५० हजार शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग में ४० हजार, शतार-सहस्रार स्वर्ग में ६ हजार, आनत-प्राणत-आरण-अच्युत स्वर्गों में ७००, अघोवेयक में १११, मध्य प्रैवेयक में १०७, ऊर्ध्व प्रैवेयक में ९१, नव अनुदिश में ९