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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२९१ निराभरण-भासुरं विगत-राग-वेगोदयात्, निरम्बर-मनोहरं प्रकृति-रूप-निदोषतः । निरायुध-सुनिर्भयं विगत-हिंस्य-हिंसा-क्रमात्, निरामिष-सुतृप्ति- मद्-विविध-वेदनानां क्षयात् ।।३२।।
अलासा- नि: - देग-इदान ? राग के उदय का वेग समाप्त हो जाने से जो ( निराभरण-भासुरं ) आभूषण रहित होकर भी देदीप्यमान है ( प्रकृतिरूपनिदोषतः ) प्रकृति रूप स्वाभाविक/यथाजात नग्न दिगम्बर मुद्रा को धारण करने से ( निरम्बर-मनोहरं ) वस्त्र के बिना ही मनोहर है ( विगत-हिंस्य-हिंसा क्रमात् ) हिंस्य और हिंसा का क्रम दूर हो जाने से जो ( निरायुध-सुनिर्भयं ) अस्त्र-शस्त्र रहित निर्भय है और ( विविधवेदनानां-क्षयात् ) विविध प्रकार की वेदनाओं-क्षुधा, तृषा आदि के क्षय हो जाने से जो ( निरामिष-सुतृप्तिमद् )आहार रहित होकर भी उत्तम तृप्ति को प्राप्त हैं। ___भावार्थ हे प्रभो ! संसारी राग के वश हो अनेक प्रकार आभूषणों से शरीर को सजाता है उस रागभाव का पूर्ण अभाव हो जाने से आपको कभी आभूषणों को धारण करने की भी इच्छा नहीं रहती है; तथापि आपका शरीर आभूषणों के बिना भी अत्यन्त सुन्दर दिखाई देता है। ____ हे प्रभो ! संसारी जीवों का शरीर स्वभाव से सुन्दर नहीं होता है अत: वे विविध प्रकार के वस्त्रों से ढककर इसे सुन्दर बनाने की चेष्टा करते हैं तथा मन की वासना को ढकने के लिये, विकारों को शमन करने के लिये वस्त्र पहनते हैं, परन्तु आपका शरीर स्वभाव से ही सुन्दर है और राग-द्वेषविषय-वासनाओं की कालिमा आपमें लेशमात्र भी नहीं है अत: आपको वस्त्रों की आवश्यकता ही नहीं है।
इसी प्रकार हे प्रभो ! आपने हिंस्य और हिंसा [ मारने योग्य और मारना ] भाव की परिपाटी को ही समाप्त कर दिया है, अत: आप दयालु न किसी की हिंसा करते हैं और न कोई आपकी हिंसा करता है। इसी कारण आप अस्त्र-शस्त्र से रहित होकर भी निर्भय हैं।
हे नाथ ! भूख, प्यास आदि वेदनाओं का आपने पूर्ण क्षय कर दिया