SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६४ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका है और ( उत्कृष्ट-अनन्त-सारं ) उत्कृष्ट, अनन्त काल तक रहने वाला व सारपूर्ण है। भावार्थ-संसारी जीवों का सुख पुण्य कर्म रूप अन्तरंग कारण वह बाह्य में भोग-उपभोग की सामग्री की अपेक्षा रहता है। उनका यह सुख अन्तराय कर्म का क्षयोपशम या यात वेदनीय के आदि की अपेक्षा से उत्पन्न होता है इसलिये क्षणिक होता है वह सुख नहीं सुखामास मात्र हैं पर सिद्ध परमेष्ठी का सुख मात्र आत्मा के उपादान से उत्पन्न होने से स्वाभाविक है, शाश्वत है। इन्द्रिय सखों में निरन्तर बाधा रहती है पर सिद्धों का मुल निर्लाभ अन्मालाध है ! भात्या के समस्त प्रदेशों व अतीन्द्रिय सुख व्याप्त होकर रहता है । सिद्धों का सुख इच्छा रहित होने से न कभी घटता है और न कभी बढ़ता है । संसारी जीवों का सुख स्पर्श-रस-गन्धवर्ण-शब्द रूप पंचेन्द्रियों की अनुकूलता की अनुकूलता चाहता है पर सिद्ध भगवन्तों का सुख इन्द्रिय विषयों से रहित/स्वाभाविक है संसारी जीवों के सुख का विपक्षी दुख सदा लगा रहता है पर सिद्धों का सुख सदा सुख रूप ही उसका कोई विपक्षी नहीं है । संसारी जीवों का सुख सातावेदनीय कर्म के उदय से प्राप्त भोजन, पानी, पुष्प माला, चन्दन, सुगंधित द्रव्य आदि से होता है परसापेक्ष है, सिद्ध भगवन्तो के वह सुख सहज है, अन्य द्रव्यों से रहित है । उपमा से रहित, प्रमाण से रहित, चिरकाल स्थायी, सदा काल पाया जाने वाला, इन्द्र, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती आदि के सुखों से भी विशेष उत्कृष्ट, सिद्ध परमेष्ठी का सुख वास्तव में संसारी जीवों के क्षणिक सुख से अत्यंत विलक्षण आत्मसापेक्ष है। नार्थः क्षुत्-तृड्-विनाशाद, विविध-रस-युतै-रन-पान-रशुच्या । नास्पृष्टे-गन्य-माल्यै-नहि-मृदु-शयन- गलानि-निद्राधभावात् । आतंकातें रभावे, तदुपशमन-सभेषजानर्थतावद् । दीपा-नर्थक्य बद् वा, व्यपगत-तिमिरे दृश्यमाने समस्ते ।।८।। ___ अन्वयार्थ ( आतङ्क-आर्तेअभावे ) रोग-जनित पीड़ा का अभाव होने पर ( तत् उपशमन सत्-भेषज-अनर्थ तावत् ) उस रोग को शमन करने वाली समीचीन/उत्तम औषधि की अप्रयोजनीयता के समान ( वा ) अथवा ( व्यपगत-तिमिरे ) अन्धकार रहित स्थान में ( समस्ते दृश्यमाने )
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy