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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका
२५९ की प्राप्ति में अन्तरंग कारण ज्ञानावरणकर्म का क्षय व क्षयोपशम है तथा बहिरंग कारण स्वाध्याय, गुरु उपदेश आदि हैं। इसी प्रकार सम्यक्चारित्र का अन्तरंग कारण चारित्रमोहनीय का उपशम-क्षय-क्षयोपशम अन्तरंग कारण है और हिंसा आदि पांच पापों का त्याग रूप व २८ मूलगुणों के पालने रूप निग्रंथ्य मुद्रा बहिरंग कारण है।
इन रत्नत्रय की विशुद्धता के प्रभाव से संसारी आत्मा क्रमश: बढ़ते हुए १२वें गुणस्थान के चरम समय में चार घातिया कर्मों का क्षय करके अरहंत अवस्था को प्राप्त करता है । १३वें गुणस्थान में अरहंत अवस्था को प्राप्त यह आत्मा अनन्त-चतुष्टय रूप अन्तरंग/आत्मिक गुणों को व आट प्रातिहार्य व समवसरण आदि बहिरंग आश्चर्यकारी विभूति को प्राप्त होता है।
चौदहवें गुस्थान चतुर्थ शुक्लमान व्यपुरतक्रियानिवर्ती के बल चार अघातिया कर्मों का क्षय करके परम परमेष्ठी रूप सिद्ध पर्याय को प्राप्त होता है । सिद्ध पर्याय को प्रकटता होती बहिरंग विभूति अष्टप्रातिहार्य व दान-लाभ-भोग-उपभोग आदि का नाश हो जाता हैं मात्र केवलज्ञान केवलदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य आदि आत्मिक गुण शाश्वत विद्यमान रहते हैं। शाश्वत आत्मीय गुणों से शोभायमान वे सिद्ध परमेष्ठी सदा अनन्तकाल के लिये ऊपर लोकाग्र में विराजमान रहते हैं। जानन् पश्यन् समस्तं, सम- मनुपरतं संप्रतृप्यन् वितन्वन्, धुन्धन् ध्यान्तं नितान्तं, निचित-मनुपमं प्रीणयन्नीशभावम् । कुर्वन् सर्व-प्रजाना-मपर- मभिभवन् ज्योति रात्मानमात्मा, आत्मन्येवात्मनासौ क्षण- मुपजनयन्-सत्-स्वयंभूः प्रवृत्तः ।।४।। __ अन्वयार्थ ( असौ स्वयंभू आत्मा ) वे स्वयंभू अरहंत परमात्मा ( समस्तं ) सम्पूर्ण लोक-अलोक को ( समं ) युगपत् ( जानन् पश्यन् ) जानते देखते हुए ( अन् उपरत ) सतत/बाधारहित ( सम्प्रतृत्यन् ) आत्मीक सुख से अच्छी तरह तृप्त होते हुए ( वितन्वन् ) आत्म ज्ञान को सर्वलोक में विस्तृत करते हुए ( नितान्तं निचितं ) अनादिकाल से संचित ( ध्वान्तं ) मोहरूपी अन्धकार को ( धुन्वन् ) नष्ट करते हुए ( अनुसभं ) समवसरण सभा में (प्रीणयन् ) सबको सन्तुष्ट करते हुए ( सर्वप्राणिनां ) तीन लोक