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________________ विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं । णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं ।। ॐ नमः परमात्मने नमोऽनेकान्ताय शान्तये । २५१ मैं परमात्मा के लिये नमस्कार करता हूँ, तथा अनेकान्त स्वरूप तत्त्वों का निरूपण करने वाले और अत्यंत शान्त वीतराग परमदेव के लिये मैं नमस्कार करता हूँ । इच्छामि भंते! आलोचेउं इरियावहियस्स पुष्युत्तरदक्खिणपच्छिम उदि विदिसासु विहरमाणेण, जुगंतर दिट्टिणा, भव्वेण, दव्या । पमाददोसेण डवडवचरियाए पाण- भूद जीव-सत्ताणं उवघादो कदो वा कारिदो वा कीरंतो वा समणुमण्णिदी, तस्स मिच्छा मे दुक्कडं । - अन्वयार्थ – ( भंते ) हे भगवन् ! [ इरियावहियस्स आलोचेडं ) ईर्यापथ के दोषों की आलोचना की (इच्छानि ) इच्छा करता हूँ ! ( मुन्दु तरदक्खिण-पच्छिम चउदिसुविदिसासु) पूर्व - उत्तर - दक्षिण-पश्चिम चारों दिशाओं व विदिशाओं [ आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य, ऐशान ] में (विहरमाणेण ) विहार करते हुए ( जुगंतर दिट्ठिणा भव्वेणदव्वा ) भव्य जीव के द्वारा चार हाथ प्रमाण भूमि को दृष्टि से देखकर चलते हुए ( पमाण दोसेण ) प्रमाद के वश से ( डवडवचरियाए ) जल्दी-जल्दी ऊपर को मुख कर चलने से ( पाण- भूद- जीव-सत्ताणं ) विकलेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, पंचेन्द्रिय व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायुकायिक जीवों का ( उवघादो ) उपघात ( कदो वा ) स्वयं किया हो, ( कारिदो वा ) कराया हो या (कीरंतो व समणुमण्णिदो ) करते हुए की अनुमोदना की हो तो (तस्स ) तत्संबंधी (मे) मेरे (दुक्कडं ) दुष्कृत्य ( मिच्छा ) मिथ्या हों । भावार्थ - चार दिशा व विदिशाओं में गमन करते हुए प्रमाद वश जीवों की हिंसा की हो, कराई हो अनुमोदना भी की हो तो मैं तत्संबंधी दोषों की आलोचना करता हूँ। मेरा दुष्कृत्य मिथ्या हो । आलोचना – निन्दा व गह को आलोचना कहते हैं । निन्दा -- दुष्कार्य के प्रति हृदय में पश्चात्ताप का होना । ग- गुरु के समीप जाकर दोषों का प्रायश्चित करना गर्दा है ।
SR No.090537
Book TitleVimal Bhakti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSyadvatvati Mata
PublisherBharat Varshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages444
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Devotion
File Size8 MB
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