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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका हाथों को जोड़ता हुआ आपके चरणों में नतमस्तक होता है, वह आपके दर्शन से अत्यन्त संतुष्ट होता है।
वस्तारातिरिति त्रिकालविदिति त्राता त्रिलोक्या इति. श्रेयः सूति-रितिनियां निधिारत, श्रेष्ठः सुराणामिति । प्राप्तोऽहं शरणं शरण्य-मगतिस्त्वां सत्-त्यजोपेक्षणम्, रक्ष क्षेमपदं प्रसीद जिन ! किं, विज्ञापितैर्गोपितैः ।।१६।।
अन्वयार्थ हे भगवान् ! ( त्रस्त आराति इति ) आप शत्रुओं को नष्ट करने वाले हैं, इसलिये ( त्रिकालविद् इति ) आप तीनों लोकों के ज्ञाता है, इसलिये ( त्रिलोक्या: त्राता इति ) आप तीन लोकों के रक्षक हैं इसलिये ( श्रेयः सूतिरिति ) आप कल्याण की उत्पत्ति करने वाले हैं इसलिये ( श्रियां निधिरिति ) लक्ष्मी की निधि हैं इसलिये और ( सुराणां श्रेष्ठः ) देवों में श्रेष्ठ हैं इसलिये ( अगतिः अहं ) अन्य उपाय से रहित ऐसा मैं ( शरण्यं ) शरण देने में निपुण ( क्षेमपदं ) कल्याण/कुशल-मंगल के स्थानभूत ( त्वां शरणं ) आपकी शरण को ( प्राप्त: ) प्राप्त हुआ हूँ ( तत् ) इसलिये ( जिन ! ) हे जिनदेव ( उपेक्षण त्यज ) उपेक्षा को छोड़िये ( रक्ष ) मेरी रक्षा कीजिये ( प्रसीद ) प्रसन्न होइये ( विज्ञपितैः गोपितैः किम् ) मेरी इस प्रार्थना को गुप्त रखने से क्या प्रयोजन ? अर्थात् इस प्रार्थना को गुप्त रखने से क्या लाभ ? आप सर्वज्ञ सभी जानते हैं।
भावार्थ---हे वीतराग प्रभो ! आप घातिया कर्मरूप शत्रुओं का क्षयकर त्रिकालज्ञ हुए इसलिये आप तीनों लोकों के रक्षक हैं । हे नाथ आप तीनों लोकों के जीवों का कल्याण करने वाले बहिरंग समवशरणादि व अन्तरंग में अनन्त चतुष्टय लक्ष्मी के स्वामी हैं । लोक के देवों में श्रेष्ठ देवाधिदेव आप ही हैं । अन्य कोई देव मेरा रक्षक नहीं हो सकता है । इस जगत् में एक अद्वितीय शरण देने में निपुण, कल्याण-मंगलसर्वकुशल के स्थानभूत हे प्रभो ! मैं आज आपकी शरण में आ चुका हूँ । हे जिनदेव ! मेरे प्रति अन्न उपेक्षा को छोड़ियो । मेरी रक्षा कीजिये। मुझ पर प्रसन्न होइये । मैं आपनी वेदना को प्रार्थना को, गुप्त रखू यह भी ठीक नहीं। आप सर्वज्ञ प्रभो ! मेरी प्रार्थना पर ध्यान दीजिये। मेरा कल्याण कीजिये।