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विमल ज्ञान प्रबोधिनी टीका निर्दोष आहार को ग्रहण करना यह एषणा समिति है । इसके विपरीत जो अशुद्ध आहार है वह मुनियों को ग्रहण नहीं करना चाहिये । आहार में अशुद्धता संबंधी दोष कैसे होते है उसी को आगे कहते हैं--( आहकम्मेण वा ) अधःकर्म से अर्थात् पृथ्वी आदि छ: जीवनिकाय को विराधना करके बनाये गये आहार से या ( पच्छाकम्मेण वा ) पश्चात् कर्म अर्थात् मुनि के आहार करके जाने के बाद पुन: भोजन बनाने से या ( पुराकम्मेण वा ) पुराकर्म अर्थात् मुनि ने आहार नहीं किया उसके पहले पाकादि क्रिया प्रारंभ करने से अथवा ( उद्दिट्ठयडे वा ) उद्दिष्टकृत अर्थात् मुनि को उद्देश्य करके उनका संकल्प करके जो भोजन बनाया अथवा देवता, पाखण्डी आदि का उद्देश्य करके जो भोजन बना है उसके ग्रहण से अथवा ( णिद्दिद्वयडेण वा ) निर्दिष्टकृत अर्थात् आपके लिये यह भोजन बनाया है ऐसा कहने पर ग्रहण करके से ( कीडयडेण वा ) क्रीत दोष से बनाये भोजन को ग्रहण करने से । क्रीत दोष दो प्रकार का है--
१. द्रव्यतीत कृत। २. भावक्रीत कृत।
१. द्रव्यक्रीत कृत दो प्रकार का है- (१.) चेतन द्रव्यक्रीत कृत (२.) अचेतनद्रव्यक्रीत कृत।
(१.) चेतन द्रव्यनीत वृत-मुनियों को चर्यामार्ग से आते देखकर चेतन गाय, भैंस, बैल आदि द्रव्यों को बेचकर आहार दान की सामग्री लाना और मुनियों को देना चेतन-द्रव्यक्रीतकृत दोष हैं।
(२.) अचेतनद्रव्यक्रीत कृत-मुनियों को चर्यामार्ग से आते देखकर अचेतन सुवर्ण, चाँदी आदि बेचकर भोजन सामग्री लाना और मुनियों को देना अचेतनद्रव्यकीत कृत दोष है।
२. भावक्रीत कृत दोष-मंत्र, तंत्र आदि प्रज्ञप्ति आदि विद्या चेटिका आदि मंत्र देकर भोजन-सामग्री लाना और उससे आहार दान देना ।
( साइया ) स्वादिष्ट ( रसाइया ) रसयुक्त/ रसीले ( सइङ्गाला ) अति आसक्ति से ग्रहण किये गये ( सधूमिया ) दातार आदि की निन्दा करते हुए ( अइगिद्धीए ) अति गृद्धता अर्थात् लालसापूर्वक ( अग्गिव ) अग्नि