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वास्तु चिन्तामणि
है। ध्यान-जागरण ग्रंथ लो एक ऐतिहासिक कृति है जिसका उपयोग कर युगों-युगों तक श्रावक जन अपना आत्म कल्याण करने में समर्थ होंगे।
इस ग्रंथ में आपने वास्तु विषयक सभी सामग्री को प्रस्तुत किया है निर्दोष वास्तु को निर्माण कर मनुष्य कैसे अपना जीवन आनन्दमय बनायें तथा यदि उसके विद्यमान मकान में त्रुटियां हैं तो उनका निराकरण कैसे करें, इत्यादि सभी विषय इस ग्रंथ की उपयोगिता में वृद्धि करते हैं। मुझे पूर्ण विश्वास है कि पूज्य गुरुवर की यह कृति अपने आप में एक अद्वितीय बहउपयोगी रचना सिद्ध होगी।
पूज्य गुरुवर का सारा जीवन परोपकार के लिए समर्पित है। किशोरावस्था में ही आप संसार, देह, भोगों से विरक्त हो गए। परमपूज्य गणधराचार्य श्री 136 कुंथुसागर जी महाराज की पारखी नजरों ने आपको परखा तथा आपके द्वारा जगत का कल्याण होगा। इस विचार से आपको बालक मुलायम चंद से मुनि देवनन्दि का स्वरूप दिया। कठिन तपस्या के साथ ही परम् पूज्य आचार्य श्री 108 कनकनन्दि जी महाराज के कुशल हस्तों ने इस रत्न को निखारा। परम पूज्य गुरुवर प्रज्ञाश्रमण आचार्य देवनन्दि जी महाराज ने अपने गुरुओं का यश वर्धन किया। निरंतर आपके द्वारा जिनवाणी माता की सेवा हो रही है। आप सदैव ज्ञान- ध्यान में लीन अपनी तप साधना तो करते ही हैं साथ ही स्व पर हित में सदैव तत्पर रहते हैं। वृद्ध आयु के साधुजनों की सेवा कर उनके सल्लेखना व्रत को सफलता पूर्वक सम्पादित कराते हैं।
ऐसे लोकोपकारी गुरू का आर्शीवाद जिसे भी मिल जाता है उसका जीवन धन्य हो जाता है। मेरा यह अहो भाग्य है कि जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य फल स्वरुप मुझे परम पूज्य गुरुवर आचार्य 108 प्रज्ञाश्चमण देवनन्दि जी का सानिध्य प्राप्त हुआ तथा उन्होंने मुझ सदृश साधारण मनुष्य को भी अपने आर्शीवाद से धन्य किया मैं उनकी शिष्या बनकर कृतकृत्य हूं। मुझे सदैव उनका मार्गदर्शन मिलता रहे तथा बोधि, समाधि की प्राप्ति हो यही सतत् भावना है। श्री क्षेत्र कचनेर 15.1.1996
आर्यिका सुमंगलाश्री