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________________ वास्तु चिन्तामणि समवशरण देवकृत अतिशय से जमीन से पाँच सहस्त्र धनुष ऊपर रहता है। चारों दिशाओं में उत्तुंग चार मानस्तम्भ, मानी पुरुषों का मान गलित करते हैं चौबीसवें तीर्थंकर वर्धमान स्वामी के प्रथम गणधर गौतम स्वामी का मान गलन मानस्तंभ देखकर ही हुआ था । तीर्थंकर भगवान के ग से नैसर्गिक निःसृत वाणी को ही जिनवाणी कहा जाता है। इसे स्याद्वाद वाणी का भी नाम दिया गया है। इसका विस्तार द्वादशांगों में होने से इसे द्वादशांग वाणी भी कहा गया है। बारहवें अंग को चौदह पूर्वों में विभक्त किया गया है। जिनके नाम इस प्रकार हैं 1. 1): उत्पाद पूर्व अस्ति नास्ति प्रवाद 4. 7. आत्म प्रवाद 10. विद्यानुवाद पूर्व 13. क्रिया विशाल पूर्व ब 2. अग्रायणी पूर्व 5. ज्ञान प्रवाद 8. कर्म प्रवाद 3. 6. 9. 12. प्राणावाय पूर्व वीर्य प्रवाद सत्य प्रवाद 15 प्रत्याख्यान प्रवाद 11. कल्याणावाद 14. लोक बिन्दुसार हरिवंश पुराण, धवला एवं गोम्मटसार जीवकांड में वर्णित तथ्यों के अनुसार तेरहवें क्रिया विशाल पूर्व में लेखन कला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री सम्बंधी चौंसठ गुणों का, शिल्प कला का, काव्य संबंधी गुणदोष विधि का और छन्द निर्माण कला का विवेचन है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शिल्प कला का ज्ञान भी तीर्थंकर प्रणीत जिनवाणी का ही अंग है तथा हमे वह उनसे ही प्राप्त हुआ है। जिनवाणी पूर्वापर अविरोध, अकाट्य होने के कारण प्रामाणिक होने से उसके अंग भी लदनुरूप प्रामाणिक एवं उपयोगी हैं, यह निर्विवाद है। प्रथम तीर्थंकर के ज्येष्ठ पुत्र भरत हुए जो इस युग के प्रथम चक्रवर्ती थे। शास्त्रों में चक्रवर्ती की विराट् सम्पदा का विस्तृत वर्णन आता है। चक्रवती
SR No.090532
Book TitleVastu Chintamani
Original Sutra AuthorDevnandi Maharaj
AuthorNarendrakumar Badjatya
PublisherPragnyashraman Digambar Jain Sanskruti Nyas Nagpur
Publication Year
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Art
File Size5 MB
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