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वास्तु चिन्तामणि
वास्तु शास्त्र का आधार
'वास्तु' शब्द का सीधा सरल अर्थ स्थापत्य है अर्थात् भवन, देवालय, प्रासाद आदि संरचनाओं का निर्माण। इस प्रकार के निर्माण की कला एवं विज्ञान, वास्तु शास्त्र में समाहित होते हैं। कला पक्ष में आकर्षक सूक्ष्म एवं स्थूल शिल्पकला का समावेश होता है जबकि विज्ञान पक्ष में धरातल, वायु मंडल, दिशाओं, सूर्य की गति एवं ऊष्मा आदि का तथा आसपास के परिकर का विचार कर, वास्तु के अनुकूल एवं प्रतिकूल (शुभाशुभ फलों को ध्यान में रखते हुए संरचना का निर्माण किया जाता है। दिशाओं की स्थिति समझकर उसके अनुरूप निर्मित संरचनाओं में सुपरिणाम निश्चय ही देखने को मिलते हैं। धरातल का ऊंचा - नीचापन, ढलान, चढ़ाव, आसपास वृक्ष, कुआं, पहाड़ी, ऊंची इमारत आदि का प्रभाव भी इस विषय में सम्मिलित किया जाता है। यदि गंभीरता से विचार किया जाये तो ज्ञात होता है कि निम्नलिखित दो प्रमुख कारक वास्तु के शुभाशुभ परिणामों को निर्धारित करते हैं
1. पृथ्वी पर होने वाले दिवस रात्रि चक्र का मूल केन्द्र सूर्य 2. पृथ्वी पर रहने वाली चुम्बकीय प्रभाव की धाराएं
सूर्य पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों के जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक ऊर्जा स्रोत है। पृथ्वी पर सूर्य से आने वाली किरणें प्रकाश तो लाती ही हैं, साथ ही ऊष्मा भी लाती हैं। यह प्रकाश एवं ऊष्मा ही पृथ्वी पर रहने वाली सभी वनस्पत्तियों में जीवन का संचार करती है। भोजन का निर्माण वनस्पतियों में सूर्य के प्रकाश के बिना संभव नहीं है। इस क्रिया में वनस्पतियां
सूर्य
प्रकाश एवं
उष्मा
पृथ्वी
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