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वास्तु चिन्तामणि वास्तु का उल्लेख प्राचीनतम काल से काल के प्रारंभ से ही होता आया है। इसका विवरण आगे पृथक रूप से उल्लेखित किया गया है। परिग्रह की संज्ञा तत्वार्थ सूत्र में ही मूर्छा से अर्थात् ममत्व बुद्धि से दी गई हैं -
'मूर्छा परिग्रह :' भवनादिक सम्पदा में प्रत्यक्ष ही प्राणियों की ममत्व बुद्धि देखी जाती है। यह मेरा कमरा है, यह हमारा मन्दिर है, यह हमारी वेदी है, यह महल मेरा है इत्यादि वार्ता साधारणतया सर्वत्र गृहस्थों में देखी जाती है। कभी-कभी तो महाव्रतियों में भी संयमोपकरण अथवा शास्त्रादि में ममत्व बुद्धि दृष्टि गोचर होती है। भवादिन में माय बुद्धि होने के कारण इनके निर्माण में मनुष्य अपनी सामर्थ्य के अनुरुप आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर निवासगृह आदि का नियोजन करता है। यथासम्भव विविधता एवं आधुनिकता की भी सोच निर्माण कार्य को प्रभावित करती है। समयानुसार भवनों की निर्माण शैलियों में परिवर्तन स्पष्ट ही देखे जा सकते हैं। मनुष्य अपनी आवश्यकता एवं अभिरुचि के अनुसार स्नानागार, पाकशाला, पूजाकक्ष, बैठककक्ष, शयनागार, शौचालय, भोजनकक्ष, सामग्री कक्ष, वाटिका कूप इत्यादि का निर्माण भवन में करता है। दीवालों से भवन निर्माण के उपरांत रंगरोगन, चित्रकारी, फुलवारी, आधुनिक फर्नीचर, सोफा, कालीन, यांत्रिक एवं विद्युत आधारित सुख-सुविधाओं के द्वारा भवन को सुसज्जित करता है। चूंकि स्वामी की यह भावना होती है कि यह भवन मेरा है अतएव उसका ममत्व उसे यह सब करने को प्रेरित करता है। भवन निर्माण के उपरान्त हमें उस भवन के निमित्त से अनुकूल प्रतिकूल फल भी मिलते हैं। इसका व्यवहारिक विवेचन ही प्रस्तुत ग्रंथ का उद्देश्य है।
भवन मनुष्य के आवास की मूल आवश्यकता की पूर्ति करता है। इसे अचल सम्पत्ति के रुप में माना गया है। अन्य सम्पत्तियों की भांति इस सम्पदा का भी क्रय-विक्रय, दान एवं नामान्तरण हो सकता है, इस सम्पदा को मनुष्य अपने जीवन की एक अतुलनीय प्राप्ति मानता है, उसका अरमान या सपना होता है स्वयं स्वामित्व का एक मकान। अतएव इस लक्ष्य की प्राप्ति होने के उपरान्त भी मनुष्य उसमें निरन्तर लगाव तो रखता ही है, साथ ही उसके रख-रखाव तथा आधुनिक साज-सज्जा में भी समय, श्रम, एवं अर्थ को व्यय करता रहता है। इस संरचना को लोग मकान, घर, भवन, आलय, निलय,