________________
वास्तु चिन्तामणि
231
उपसंहार 'वास्तु चिन्तामणि' ग्रंथ के पठन से आप निश्चय ही विषय से अवगत हो गए होंगे। जैन वाङमय के अतिगहन महासागर से निकला यह रत्न आपके उपयोग में आए, यही आंतरिक भावना है। वास्तु चिन्तामणि' शास्त्र का लेखन करने का उद्देश्य तभी सार्थक होगा, जब विवेकी पाठक इसका सारभूत तथ्य समझकर अपनी आकुलता दूर करेंगे। इससे न केवल निवासी पर पाठकों की आस्था का विकास होगा बल्कि तदनसार आचरण कर विवेकी श्रावक अपना लक्ष्य जैन धर्म की ओर लगाएंगे तथा धर्म पुरुषार्थ का कर्तव्य पूर्ण करेंगे। ___ हमने भरसक प्रयास किया है कि जैन वास्तु अर्थात् स्थापत्य से संबंधित सभी सारभूत तथ्य इस पुस्तक में सम्मिलित हो जायें। रेखा-चित्रों के माध्यम से यथा संभव विषय को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। गृह चैत्यालय के प्रकरण में यह स्मरणीय है कि उल्लेखित आकृति से बड़ी जिन प्रतिमा पूजा गृह में न रखें। जिन प्रतिमा अप्रतिष्ठित न रखें। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा से प्रतिष्ठित प्रतिमा ही पूज्य होती है। प्रतिमा का अभिषेक, प्रक्षाल, पूजनादि क्रियाएं नियमित रूप से करना आवश्यक है। इस प्रकरण में कोई भी शंका होने पर मुनिराजों अथवा प्रतिष्ठाचार्यों से परामर्श अवश्य कर लेवें।
नवीन आवास गृह निर्माण करने से पूर्व वास्तु शास्त्र के नियमों का ध्यान रखकर ही कुशल आर्किटेक्ट से मानचित्र बनवाना चाहिये। निर्माण संपूर्ण हो जाने के बाद सुधारने के लिए तोड़ फोड़ करना उपयुक्त नहीं है। ऐसा करने से अनावश्यक परेशानी, आर्थिक क्षति एवं समय का अपव्यय होता है। यथासंभव ऐसी दुविधाओं से बचना उचित है। पूर्व-निर्मित गृह को तभी क्रय करें जबकि वह शास्त्र के नियमों के अनुकूल हो। संभव है कि पूर्व निवासी उस मकान के वास्तु दोष के कारण पीड़ित हो तथा अपनी परेशानियों से मुक्त होने के लिए गृह को बेच रहा हो। वास्तुदोष आकलन करना भी आवश्यक है। अनेकों बार निर्माण 100 प्रतिशत वास्तु शास्त्र के अनुरूप नहीं हो पाता, प्राकृतिक अथवा मनुष्य निर्मित कई ऐसी असमर्थताएं होती हैं, जिनका न तो निराकरण हो पाता है, न ही उस संपदा से मुक्ति मिल पाती है। ऐसा पारिवारिक विभाजन के द्वारा प्राप्त सम्पत्ति के प्रकरण में अक्सर देखा जाता