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वास्तु चिन्तामणि
के लिए अत्यंत उपयोगी समझकर इसे प.पू. श्री 108 कुन्थुसागर जी महाराज ने हिन्दी पद्यानुवाद करके जनोपयोगी बना दिया है। मैं पूज्य गुरूवर का अत्यन्त ऋणी हूँ जो उन्होंने इसे प्रकाशित करने की अनुमति प्रदान की । वास्तु पूजन के लिए वास्तु चक्रों के चित्र दिए गए हैं। आचार्य वसुनन्दि कृत प्रतिष्ठासार में इक्यासी पद का वास्तु चक्र बनाकर पूजा करने का उपदेश दिया है। यह अनुकरणीय भी है। उनचास पद का वास्तु चक्र बनाकर भी मंडल विधान किया जाता है। सही रीति से वास्तु पूजन कर गृह / वास्तु शान्ति कराकर ही शुभमुहूर्त में गृह प्रवेश करना उपयोगकर्ता के लिए शुभ है ।
अतएव यह स्पष्ट है कि वास्तु शास्त्र के सभी पहलुओं पर पूज्य आचार्य श्री ने समुचित प्रकाश डाला है। आपने अपनी करुणा बुद्धि से श्रावकजनों के हितार्थ यह उद्यम किया है। आचार्य श्री के इस कर्तृत्व की जितनी भी स्तुति की जाए, कम है। प्राचीन काल में यद्यपि श्रावकाचार विषयों पर अनेकानेक महान आचार्यों ने अनेकों महान एवं लघु ग्रंथ लिखे । किन्तु श्रावक के निवास, गृह चैत्यालय एवं आजीविका स्थान पर अलग से शास्त्र कदाचित् अत्यंत दुर्लभ है। पूज्य आचार्यश्री ने अपनी गंभीर लेखनी से इस कमी को पूरा किया है। उल्लेखनीय है कि गत साल से रूपों में उस पर मात्र एक ग्रन्थ ठक्कर वर्तमान फेरु कृत वास्तुसार ही पृथक रूप से वास्तु पर लिखा हुआ में उपलब्ध हैं। वह भी काफी पहले प्रकाशित हुआ था। वर्तमान की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए पूज्य आचार्य श्री ने इस कृति की रचना की है। वास्तु शास्त्र के सभी अंगों का निरुपण करके पूज्य गुरुवर आचार्य श्री 108 प्रज्ञाश्रमण देवनन्दि जी महाराज ने न केवल एक अद्वितीय कृति प्रस्तुत की हैं बल्कि साथ ही साथ प्रज्ञाश्रमण उपाधि, जो उन्हें परमपूज्य गणधराचार्य श्री 108 कुंथुसागर जी महाराज ने वात्सल्य पूर्वक दी थी, उस उपाधि को भी सार्थक किया है।
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प्रस्तुत ग्रंथ के लिए सामग्री तैयार करना भी अत्यंत जटिल कार्य था। प्राचीन ग्रंथों से सामग्री का संचयन करने में संघस्थ पूज्य आर्यिका श्री 105 सुमंगलाश्री माताजी ने भी पर्याप्त सहकार्य किया। संस्कृत एवं प्राकृत गाथाओं का संकलन एवं संशोधन करने में आपका मार्गदर्शन अत्यंत सराहनीय है। आप परम विदुषी हैं तथा जिनवाणी के मर्म को समझने में समर्थ हैं। चारों अनुयोगों के कठिन से कठिन विषयों को आप सहजता से ही समझा देती हैं। मेरी कामना हैं कि आपके द्वारा भविष्य में भी जिनवाणी माता की सेवा हो तथा आप शीघ्र ही भवबंधन से मुक्त होकर मुक्तिलक्ष्मी को प्राप्त करें।