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वास्तु चिन्तामणि
आती हैं, और कार्य सम्पन्न नहीं हो पाता। अनेकों ऐसे उदाहरण प्रत्यक्ष देखने में आते हैं। वास्तु से संबंधित कई लोगों की मृत्यु हो जाती है, बीमारी घेरे रहती हैं, अथवा आर्थिक क्षति आदि उठानी पड़ जाती है। निर्माण कार्य दसों साल तक अवरुद्ध रहता है। वास्तु निर्माणकर्ता कम से कम भूमि में अधि काधिक जगह निकालने हेतु दिशाओं का ध्यान रखे बिना वास्तु निर्माण कार्य तथा तलघर आदि का निर्माण कराते हैं। वे सोचते हैं कि अतिरिक्त सामान या निरर्थक सामान तलघर में भर देंगे, अथवा तलघर स्वाली पड़ा रहने देंगे। किन्तु सुपरिणाम के स्थान पर दुष्परिणाम पाते हैं। अतएव यह अपेक्षित है कि किसी भी वास्तु का निर्माण पूरे सोच-विचार के साथ वास्तु शास्त्र के अनुकूल करना चाहिए। जगह का लोभ नहीं करना चाहिए। अत्यधिक आवश्यकता होने पर ही तलघर बनाना चाहिए।
वास्तु शरत के अनुकूल बना देवघर वास्तु को शदिर,मान बनाता है। तलघर केवल ईशान, पूर्व या उत्तर दिशा में ही बनाना चाहिए। यदि उपयुक्त स्थान पर तलघर बनाना संभव न हो तो इसके निर्माण का विचार ही त्याग देना श्रेयस्कर है।
तलघर निर्माण करते समय निम्न बातों का ध्यान रखना आवश्यक है
1. वास्तु की दक्षिण दिशा में तलघर बनाने से स्वामी को अत्यंत दुख सहन करना पड़ता है तथा पश्चिम दिशा का तलघर भी काफी कष्टदायक होता है।
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2. यदि वास्तु के दक्षिण दिशा में तलघर बनाकर उसमें दुकान खोली जाए तो अपेक्षा के अनुकूल न तो व्यापार होता है न ही लाभ, लगातार परेशानियां व संकट बने रहते हैं।
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उत्तर पूर्व एवं ईशान का तलघर शुभफल देता है।
4. नैऋत्य दिशा में तलघर होने पर उसका उपयोग भारी सामान भरने या गैरेज के लिए लेना चाहिए। सम्पूर्ण वास्तु के नीचे तलघर कभी न
बनवाएं।
पिछवाड़ा - सेवक गृह
सेवकों के लिए पिछवाड़े में पृथक गृह निर्मित करना आवश्यक होता है। भंडार कक्ष अथवा पशुशाला के लिए भी ऐसा करना पड़ता है। इसे दक्षिणी या
मध्य