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वास्तु चिन्तामणि
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अंतः सज्जा आयोजना
Interior Decoration Plan
घर की आंतरिक साज-सज्जा दीवालों पर रंग, चित्रकारी तथा मूर्तियां आदि से करने का प्रचलन प्रारम्भ से ही रहा है। मन्दिरों में भी भीतर एवं बाहर इसी प्रकार की सज्जा की जाती है। गृह का वातावरण मन्दिर के वातावरण से भिन्न होता है।
जिन चित्रों से मंगल भावनाओं का निर्माण हो, नेत्रों एवं मन के लिए आनन्दकारी हों तथा शुभ एवं शांतिदायक विचारों का आगमन हो तभी ऐसी सजावट की सार्थकता है। क्रोध, उद्वेग, भय, ग्लानि, आश्चर्य उत्पन्न करने वाले चित्र या मूर्तियां भी नहीं लगानी चाहिए।
जोइणिनडारंभ भारह रामायणं च निवजुद्धं । रिसिचरिअ देवचरिअ इअ चित्तं गेहि नहु जुत्तं । । फलियतरु कुसुमवल्ली सरस्सई नवनिहाणजुअलच्छी । कलसं वद्भावणयं सुमिणावलियाइ सुहचित्तं ।।
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वास्तुसार प्र./गा. 138-13911
योगिनियों के नृत्य, नट, महाभारत एवं रामायण आदि ग्रंथों के युद्धों के चित्र घर में नहीं लगाना चाहिए। ऋषिचरित्र एवं देवचरित्र के चित्र भी महावैराग्यवान होने से घर में लगाना अनुपयुक्त है।
फलदार वृक्ष, पुष्पलता, सरस्वती देवी, नवनिधानयुक्त लक्ष्मीदेवी, कलश, स्वस्तिक इत्यादि मंगलमय चिन्हों तथा सुस्वप्नपक्ति का चित्रण अत्त्यंत शुभ है। जिनेन्द्र देव, तीर्थंकरों, मुनियों, तीर्थक्षेत्र, जिनालय आदि की चित्रकारी अथवा तस्वीर या प्रतिकृतियां लगाई जा सकती हैं। किन्तु इन्हें पश्चिम या दक्षिण की दीवाल पर पूर्व या उत्तर की ओर मुख किए हुए लगाना चाहिए।
लगाये गए चित्र यदि कांच के फ्रेम में हों तो यह ध्यान रखें कि कांच फूटा न हो। चित्रों के ऊपर धूल न जमी हो ।
वास्तु में प्रेत, राक्षस, कालीदेवी, असुर, व्याघ्र, सिंह, कौआ, उल्लू रीछ, शूकर, लोमड़ी, लकड़बग्घा, गिद्ध आदि के चित्र कदापि न लगाएं। इनसे मानसिक चंचलता एवं भयोत्पादक भाव उत्पन्न होते हैं ।
नट - नटियों के चित्र मानसिक अस्थिरता पैदा करते हैं। युद्धरत सेना के चित्र परिवार में कलह एवं अनबन को पैदा करते हैं।