________________
वास्तु चिन्तामणि
द्वार-प्रकरण Chapter of Gates and Doors वास्तु निर्माण करते समय सभी भागों का अपना-अपना महत्त्व होता है। अन्य अंगों की भांति दरवाजा या द्वार बनाते समय भी दिशाओं का विचार करना सुफल प्राप्ति के लिए आवश्यक है। निर्माण में दरवाजे एवं खिड़कियां यदि विधि अनुसार सही दिशा में लगाई जाएंगी तो सुफलदायक निश्चित ही होंगी। जैन वास्तु शास्त्रकारों के मत से आवश्यकतानुसार चारों ही दिशाओं में इन्हें लगाया जा सकता है। किन्तु उनके स्थान का निर्धारण आवश्यक है।
पुव्वाइ विजयबारं जमबारं दाहिणाइ नायव्वं । अवरेण मयरबार कुबे रबारं उईचीए।। नामसमं फलमेसि बारं न कयावि दाहिणे कुज्जा। जई होइ कारणेणं ताउ चउदिसि अट्ठभाग कायव्वा।। सुह बार अंसमझे चउसु पि दिसासु अट्ठभागासु। चउ तिय दुन्नि छ पण तिय पण तिय पुवाइ सुकम्मेण।।
- वास्तुसार प्र. । गा. 109 से " पूर्वदिशा के द्वार को विजय द्वार, दक्षिण द्वार को यम द्वार, पश्चिम द्वार को मकर द्वार तथा उत्तर द्वार को कुबेर द्वार कहते हैं। ये सभी नामानुसार फलदायी हैं। अत: दक्षिण दिशा में द्वार कभी न बनाना चाहिए। यदि बनाना आवश्यक हो तो मध्य भाग में नहीं बनाएं। पूर्व दिशा के आठ भागों में से तीसरे या चौथे भाग में तथा दक्षिण दिशा में दूसरे या छठवें भाग में द्वार निर्माण उपयुक्त होता है।
पूर्वद्वार- इसे विजय द्वार कहते हैं। यह उत्तम माना जाता है। पूर्व दिशा के आठ भागों में से तीसरे एवं चौथे भाग में द्वार बनवाना चाहिए। प्रात: कालीन रविकिरणों के सरल प्रवेश से शारीरिक
विजय द्वार