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वास्नु चिन्तामणि
ग्रन्थकर्ता ने इसमें आवास भूमि तथा आवास आकार-प्रकार का वर्णन किया है। साथ ही सर्वाधिक उपकार की वार्ता यह है कि इस ग्रंथ में पूज्य आचार्य श्री ने भूमि तथा वास्तु संरचना के शुभ एवं अशुभ फलाफल का वर्णन किया है। ग्रंथकर्ता पूज्य आचार्य श्री ने आकस्मिक संकटों से बचने के लिए पूर्वाभास भी दिया है। यदि श्रावक (गृहस्थ) यथा शक्ति अपने वास्तु (आवासगृह, भूमि, व्यापारिक भवनादि) में उपयुक्त संशोधन करा लेवें तो उनकी प्रतिकूलताएं पुरुषार्थ से अनुकूलताओं में परिवर्तित हो सकती हैं।
ग्रन्थ परिचय प्रस्तुत ग्रन्थ वास्तुचिन्तामणि में वास्तु से सम्बंधित सभी विषयों का परिचय देना मैं अपना कर्तव्य गगाता हूँ। इसको मार खण्डों में विभाजित किया गया है। ग्रंथकर्ता ने प्रथम खण्ड में वास्तुशास्त्र की उपयोगिता एवं प्राचीनता का वर्णन किया है। वास्तु परिचय में तत्त्वार्थ सत्र के संदर्भ से वास्तु शब्द का विवेचन परिग्रह के रूप में किया गया है। वास्त अर्थात् भवनादिक संपदा, ये अचल संपति है तथा स्वामी एवं उपयोगकर्ता का ममत्व इनमें स्वभावत: रहता ही है। भवन, आवासगृह इत्यादि मनुष्य की मूल आवश्यकता है। अतएव उनके उपयोग से मनुष्य का सुख-दुख भी जुड़ा रहता है। आचार्य श्री ने इस प्रकरण में देवालयों एवं जिन प्रतिमाओं के संदर्भ में यह भी चर्चा की है कि अमुक प्रतिमा के कारण अतिशय होता है तथा अमुक प्रतिमा के समक्ष मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं। अथवा इसके विपरीत अमुक प्रतिमा या जिनालय के स्थापनकर्ता निर्वंश, दरिद्र, अकालमरणादि दुखों से दुखी हो गए, इन सब कारणों के मूल में वास्तुशास्त्र के सिद्धान्त ही हैं।
आगामी लेख में आपने वास्तु का आधार विषय पर चर्चा की है। इस प्रकरण में विज्ञान पक्ष का आश्रय लेकर पूज्यवर ने वास्तु संरचनाओं पर प्रभाव डालने वाली दो प्रमुख कारक शक्तियों की व्याख्या की है। दिशाओं का विभाजन भी इन्हीं के आधार पर किया गया है। प्रथम कारक सूर्य है जो कि पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों के जीवन के लिए अनिवार्य कारण है। वायुमण्डलीय आक्सीजन जीवन के लिए अनिवार्य है। सूर्य प्रकाश की उपस्थिति में बनस्पतियाँ कार्बनडाईआक्साइड ग्रहण करती हैं। भोजन निर्माण क्रिया में वनस्पतियां आक्सीजन गैस छोड़ती हैं। सूर्य के अभाव में वनस्पतियों का अभाव हो जाएगा। फलस्वरूप आक्सीजन के अभाव में जीवन का ही अभाव हो जाएगा। सूर्य के उदय की दिशा पूर्व कहलाती है। सूर्यास्त की दिशा पश्चिम कहलाती है। सूर्योदय के समय की किरणों में सौम्यता होती है जबकि संध्या समय की प्रखर। इस कारण पूर्व एवं पश्चिम दिशा के प्रभाव से पृथक परिणाम देखे जाते हैं।