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लिए जनक तुल्य जनक नामक एक पुत्र था। अनुक्रम में वह राजा बना।
(श्लोक १-२) अयोध्या नगर में भगवान ऋषभदेव के पश्चात् इक्ष्वाकु वंश में सूर्य वंश के अनेक राजा हुए। उनमें कई मोक्ष गए, कई ने स्वर्ग प्राप्त किया। उसी वंश में जब बीसवें तीर्थङ्कर का तीर्थ प्रवर्तित हो रहा था उस समय विजय नामक एक राजा राज्य कर रहे थे। उनकी रानी का नाम था हिमचला। उनके वज्रबाहु और पुरन्दर नामक दो पुत्र थे।
(श्लोक ३-५) उस समय नागपुर में इभवाहन नामक एक राजा थे । उनकी रानी चड़ामणि के गर्भ से मनोरमा नामक एक कन्या उत्पन्न हई। मनोरमा जब यौवन को प्राप्त हुई तब चन्द्र जैसे रोहिणी का पाणिग्रहण करता है उसी प्रकार वज्रबाहु ने मनोरमा का खूब धूमधाम से पाणिग्रहण किया। पाणिग्रहण के पश्चात् मनोरमा के साथ वह स्व-नगर की ओर रवाना हुआ। उनकी पत्नी का भाई उदयसुन्दर भी स्नेहवश उनके साथ गया। जाते हुए राह में उन्होंने उदयाचल पर स्थित सूर्य से बसन्तगिरि के शिखर पर स्व-तपस्तेज से प्रकाशित गुणसागर नामक एक मुनि को देखा। वे ऊर्ध्व दिशा की ओर देख रहे थे मानो वे मोक्ष मार्ग का अवलोकन कर रहे हों। मेघ को देखकर मयूर जैसे प्रसन्न हो जाता है उसी प्रकार मुनि को देखकर प्रसन्न बने वज्रबाहु ने अपने यान को रोक कर कहा-'बड़े पुण्य से चिन्तामणि जैसे खुब समर्थ और वन्दना करने योग्य मुनि के मैं आज दर्शन कर सका।'
(श्लोक ६-१२) यह सुनकर उदयसुन्दर हँसते हुए बोला-'कुमार. आप क्या दीक्षा लेना चाहते हैं ?' वज्रबाहु ने कहा-'हां, मेरी ऐसी ही इच्छा है।' उदयसुन्दर उसी प्रकार हँसते हुए बोला- 'आपकी यदि ऐसी ही इच्छा है तो देर कैसी ? मैं भी आपका अनुगामी बनगा।'
__ (श्लोक १३-१४) वज्रबाहु बोले-'समुद्र जिस प्रकार अपनी मर्यादा को भंग नहीं करता उसी प्रकार तुम भी अपनी प्रतिज्ञा भंग मत कर देना।'
(श्लोक १५) उदयसुन्दर बोला-'निश्चय ही नहीं करूंगा।' मोह से उतरने जैसे वज्रबाहु अपने वाहन से उतरे और उदय