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गया। अन्तःपुरिकाओं ने कुलदेवी की तरह उसकी पूजा की और सम्मान किया।
(श्लोक २१३-२१५) जन्म के पश्चात् वह पहले हनुपुर आया इसलिए प्रतिसूर्य ने जातक का नाम हनुमान रखा। विमान से गिरने पर उसके शरीर के आघात से पर्वत चूर-चूर हो गया था इसलिए उसका द्वितीय नाम श्रीशैल रखा गया।
(श्लोक २१६-२१७) ____उधर रावण की सहायतार्थ गए पवनंजय ने वरुण से सन्धि कर खर और दूषण को मुक्त किया। रावण भी सपरिवार लङ्का लौट गया। पवनंजय रावण की अनुमति लेकर स्व-नगर को लौट आए। पिता-माता को प्रणाम कर वे अंजना के महल गए; किन्तु ज्योत्स्नाहीन चन्द्र की तरह अंजनाहीन प्रासाद को देखकर दुःखी हुए। वहाँ की एक दासी से उन्होंने पूछा-'अंजन की तरह नेत्रों को परितृप्तकारी मेरी अंजना कहाँ है ?' वह बोली, आपके युद्ध में जाने के कुछ दिनों पश्चात् अंजना को गर्भवती देखकर महारानी केतुमती ने उन्हें घर से निकाल दिया। उनकी आज्ञा से हिरणी की तरह भयभीत अंजना को अनुचरगण महेन्द्रनगर ले गए। वे दुष्ट उन्हें महेन्द्रनगर के निकट एक वन में छोड़ आए।'
(श्लोक २१८-२२५) यह सुनकर कबूतर की तरह स्वप्रियतमा से मिलने को उत्सुक पवनंजय पवन वेग से अपने श्वसुरालय गए ! वहाँ भी न देखकर एक दासी से पूछा-'मेरी पत्नी अंजना यहाँ आई थी क्या ?' उसने उत्तर दिया, 'वह अपनी सखी बसन्ततिलका के साथ यहाँ आई थी; किन्तु, उस पर व्यभिचार का आरोप होने के कारण उनके पिता ने उन्हें निकाल दिया।' (श्लोक २२६-२२८)
यह सुनकर वज्राहत-से आहत पवनंजय ने वन में प्रवेश किया। अरण्य में पर्वतों में उसे खोजने लगे; किन्तु कहीं भी खोज न पाकर अन्त में शापभ्रष्ट देव की तरह स्वमित्र प्रहसित बोले, 'मित्र, तुम मेरे पिता से जाकर कहो सारी पृथ्वी खोज डालने पर भी अंजना को कहीं नहीं पाया। मैं फिर वन में जाकर उसे खोजता हूं। यदि मिली तो ठीक नहीं तो मैं अग्नि प्रवेश करूंगा।'
__ (श्लोक २२९-२३२) पवनंजय के कहने से प्रहसित तत्काल मादित्यपुर गया और