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जाएगा और कौन नरक । अत: दूसरे दिन उन्होंने हम लोगों को बुलवाया और प्रत्येक को एक-एक आटे का मुर्गा देकर कहा - जहाँ कोई न देखे वहाँ ले जाकर इन्हें मार डालना । वसु और पर्वत ने आत्मगति के अनुरूप निर्जन में जाकर दिए हुए मुर्गों की हत्या कर दी । मैं नगर के बाहर जनमानवहीन स्थान पर जाकर दिशाविदिशाओं को देखकर सोचने लगा गुरु ने हमें आदेश दिया था कि जहाँ कोई न देखे वहाँ जाकर मुर्गे को मारना; किन्तु यहाँ तो मुर्गा स्वयं देख रहा है, मैं देख रहा हूं । खेचर देख रहे हैं और ज्ञानी भी देख रहे हैं । ऐसी जगह तो कहीं नहीं है जहाँ कोई नहीं देखे । इससे गुरु आज्ञा का यह तात्पर्य हुआ कि मुर्गे को मारना मत । हमारे पूजनीय गुरु तो दयालु एवं सर्वदा हिंसा का परिहार करने वाले हैं। उन्होंने लगता है हमारी बुद्धि की परीक्षा लेने के लिए ही ऐसा आदेश दिया है। ऐसा सोचकर मैं गुरु के पास लौट आया और मुर्गे को नहीं मारने का कारण भी उन्हें बता दिया । इससे गुरुजी समझ गए कि मैं स्वर्ग जाऊँगा । अतः हर्षित होकर मारे प्रसन्नता के उन्होंने मुझे बाहों में जकड़ लिया और 'वाह - वाह' करने लगे । ( श्लोक ३८३ - ३९९) 'थोड़ी देर बाद ही वसु और पर्वत आए । वे बोले- जहाँ किसी ने भी नहीं देखा ऐसे स्थान पर जाकर उन्होंने मुर्गों को मार डाला है । यह सुनकर दुःखी हुए गुरुजी उन्हें धिक्कारते हुए बोले, 'पापी, तुम लोग स्वयं तो देख रहे थे, ऊपर खेचर देख रहे थे, तब तुम लोगों ने कैसे मुर्गों की हत्या कर दी ?' उनके कृत्य से गुरुजी को इतना दुःख हुआ कि उन्होंने हमें आगे पढ़ाना बन्द कर दिया । वे सोचने लगे वसु और पर्वत को पढ़ाने का प्रयत्न तो व्यर्थ हो गया । आधार भेद से जल जैसे मुक्ता या लवण हो जाता है उसी प्रकार गुरु उपदेश भी पात्र के अनुसार ही परिणमित होता है । पर्वत मेरा प्रिय पुत्र है, और वसु मुझे पुत्र से भी ज्यादा प्रिय है । ये दोनों ही जब नरक जाएँगे तब गृहस्थावास से क्या लाभ ?
(श्लोक ४०० - ४०४)
'इस प्रकार वैराग्य प्राप्त कर गुरुजी ने दीक्षा ग्रहण कर ली और उनका स्थान पर्वत ने ग्रहण किया । व्याख्या करना और पढ़ाने में तो वह निपुण ही था । गुरुजी की कृपा से मैं भी शास्त्रों