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लगी। इस प्रकार जीव हत्या होते देखकर बाली का मन दया हो उठा । वह रावण के पास जाकर बोला- (श्लोक २०४-२०९)
'विवेकी पुरुषों के लिए सामान्य जीव हत्या करना भी जब अनुचित है, तब हस्ती आदि पंचेन्द्रिय जीवों की हत्या का तो कहना ही क्या है ? यद्यपि शत्र को समस्त प्रकार से जय करना उपयुक्त है फिर भी पराक्रमी पुरुष स्व भजबल से ही शत्र को जीतने की इच्छा रखते हैं। हे रावण, तुम पराक्रमी भी हो, श्रावक भी हो । अत: सैन्य युद्ध बन्द कर दो। इस प्रकार के युद्ध में अनेक निर्दोष जीवों की हत्या होती है जो चिर नरक वास का कारण है।'
(श्लोक २१०-२१२) बाली की इस युक्ति को सुनकर धर्म का ज्ञाता सब प्रकार की युद्ध विद्याओं में विशारद रावण अकेला ही बाली के साथ युद्ध करने को तत्पर हो गया। रावण बालो पर जो भो अस्त्र निक्षेप करता बाली उसको अपने शस्त्र से सूर्य किरण जैसे अग्नि को हतप्रभ कर देती है उसी प्रकार निरर्थक कर देता। रावण ने सर्प वरुण आदि मन्त्रास्त्र चलाए, बाली ने गरुड़ादि अस्त्र चलाकर उन्हें नष्ट कर दिया। जब समस्त मन्त्रास्त्र निष्फल हो गए तब ऋद्ध रावण ने दीर्घकाय भुजङ्ग-सा चन्द्रहास खड्ग निष्कासित कर बाली की हत्या करनी चाही। उस समय रावण को देखकर लग रहा था मानो एक दंत विशिष्ट हाथी या एकशृङ्ग युक्त पर्वत दौड़ा आ रहा है। जैसे कोई हाथी क्रीड़ा ही क्रीड़ा में शाखा सहित वृक्ष को उखाड़ फेंकता है उसी प्रकार बाली ने खड्ग सहित रावण को बाएँ हाथ से उठाकर बगल में दबा लिया और बिना व्यग्र हुए क्षण भर में चारों समुद्र की परिक्रमा देकर लौट आया। लज्जा के मारे रावण का सिर झुक गया। तब रावण को छोड़कर वह बोला-. 'रावण ! वीतराग सर्वज्ञ, आप्त और त्रैलोक्य पूजित अर्हत के अतिरिक्त मेरे लिए और कोई पूज्य नहीं है। तुम्हारे शरीर से उत्पन्न गर्व रूपी उस शत्र को धिक्कार है जिसके कारण तुम मुझे सेवक बनाने की इच्छा से इस स्थिति को प्राप्त हुए हो; किन्तु मैं हमारे गुरुजनों के प्रति किए गए उपकार को स्मरण कर तुम्हें छोड़ देता हूं और इस पृथ्वी का राज्य भी तुम्हें देता हूं जिस पर तुम्हारी अखण्ड आज्ञा कार्यकर हो। यदि मैं विजय की इच्छा करूं तो तुम