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[187 वह जाना ही नहीं चाता था । वे लौहमय शस्त्रों से और देवाधिष्ठित अस्त्रों से बहुत देर तक युद्ध करते रहे; किन्तु कोई भी किसी को पराजित नहीं कर सका । ( श्लोक १४६ - १५१ ) अन्ततः भयङ्कर क्रोधावेश में आकर इन्द्रजीत और मेघवाहन ने सुग्रीव और भामण्डल पर नाग पाश अस्त्र निक्षेप कर दिया उससे वे लोग इस प्रकार बंध गए कि श्वास लेना भी उनके लिए कठिन हो गया । उसी समय कुम्भकर्ण की चेतना लौटी । उसने हनुमान पर गदा से प्रहार दिया । हनुमान मूच्छित होकर गिर पड़े । तब कुम्भकर्ण ने तक्षक नाग-सी अपनी भुजाओं द्वारा हनुमान को उठाकर बगल में दबाया और लङ्का की ओर चल पड़े । यह देखकर विभीषण ने राम से कहा - 'हे प्रभु, शरीर में जैसे दो नेत होते हैं उसी प्रकार सुग्रीव और भामण्डल आपकी सेना का सार है । उन्हें इन्द्रजीत और मेघवाहन ने नागपाश में बांध रखा है। उन्हें लेकर वे लङ्का जाएँगे उसके पूर्व ही मुझे आज्ञा दें मैं उन्हें बन्धन मुक्त कर ले आऊँ । हे प्रभु, सुग्रीव, भामण्डल एवं हनुमान के बिना हमारी सेना वीरविहीन है ।' ( श्लोक १५२ - १५९ ) विभीषण जिस समय राम से यह कह रहे थे उसी समय अङ्गद कुम्भकर्ण पर झपटे और युद्ध करने लगे । क्रोधान्ध कुम्भकर्ण ने ज्योंही अपनी भुजाएँ उठायीं हनुमान उसकी बगल से निकलकर जिस प्रकार पिंजरे का दरवाजा खुला पाते ही पक्षी उड़ जाता है तत्काल आकाश में उड़ गए । इन्द्रजीत और मेघवाहन के साथ युद्ध कर सुग्रीव और भामण्डल को मुक्त कराने के लिए विभीषण रथ पर चढ़कर उनकी ओर बढ़ा। विभीषण को आते देखकर इन्द्रजीत सोचने लगा पिता का छोटा भाई होते हुए भी विभीषण मुझसे युद्ध करने आ रहे हैं । चाहे कुछ भी हो आखिर ये मेरे पितृव्य हैं । उनसे युद्ध करना मेरे लिए उचित नहीं है । कारण ये मेरे पितृतुल्य हैं । अतः मेरा यहां से चले जाना ही उचित है । अपने से बड़े और पूज्यों के सम्मुख से पीछे हटना लज्जास्पद नहीं है । नागपाश में बद्ध शत्रु अवश्य ही मर जाएँगे । अतः उन्हें यहीं पटक कर चला जाऊँ ताकि वे मेरे निकट नहीं आएँ और न ही मुझे उनसे युद्ध करना पड़े । ऐसा सोचकर मेघवाहन के साथ इन्द्रजीत वहां से चला गया । विभीषण भामण्डल और सुग्रीव के पास जाकर खड़े