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उभय पक्ष के सैनिक अपने-अपने नायकों की प्रशंसा कर विपक्ष के नायकों की निन्दा करने लगे और दूसरे को आक्षेप देते हुए गाल बजाकर ताल ठोक कर शस्त्रों को झंकृत कर करताल की तरह एक दूसरे से सन्नद्ध हो गए। 'ठहर-ठहर, भाग क्यों रहा है; अस्त्र धारण कर, भीरु की तरह खड़ा मत रह, यदि भला चाह रहा है तो अस्त्र रखकर शरण ले'-इस प्रकार कहते हुए चीत्कार करने लगे। तीर, शंकू, बी, चक्र, गदा और परिघ अरण्य में उड़ने वाले पक्षियों की तरह उड़ने लगे और दोनों ओर की सेना में आ-आकर गिरने लगे। एक दूसरे के प्रहार से उभय पक्ष के योद्धा आहत होने लगे। उनके शिर कटकर उछलने लगे। वे उड़ते हुए सिर और धड़ ऐसे लगने लगे मानो समस्त आकाश राहु और केतुमय हो गया है। मुद्गर के आघात से हाथियों को धराशायी करने वाले वीर ऐसे लग रहे थे मानो यष्टि से तन्दूक खेल रहे हों। कोई दोनों हाथ, दोनों पैर और मस्तक कट जाने से ऐसे लग रहे थे मानो फल-फल पत्र शाशा प्रशाखा-हीन वक्ष खड़ा है। वीर योद्धागण शत्रु का मस्तक काट-काटकर जमीन पर गिराने लगे मानो वे क्षुधातुर यमराज को माहार दे रहे हैं।
(श्लोक ६३-७०) __बहुत देर तक युद्ध चला। पैतृक सम्पत्ति का अंश पाने में जैसे देर लगती है उसी प्रकार जयलक्ष्मी सधने में विलम्ब होने लगा। दोर्घकाल तक युद्ध करने के पश्चात् वानर सेना ने हवा जैसे वन को भग्न कर देती है उसी प्रकार राक्षस सेना को भग्न कर डाला। राक्षस सेना को परास्त होकर पीछे हटते देखकर रावण की जय के जमानत रूप हस्त और प्रहस्त युद्ध के लिए अग्रसर हुए। उनसे युद्ध करने के लिए इस पक्ष के वीर योद्धा नल और नील उनके सम्मुख गए।
(श्लोक ७१-७४) पहले वक्र और अवक्र ग्रहों की तरह रथारूढ़ होकर वे परस्पर मिले। एक-दूसरे को युद्ध के लिए आह्वान करने लगे। दोनों पक्षों से बाण-वर्षा होने लगी। परस्पर की इस बाण-वर्षा में चार व्यक्तियों के रथ विद्ध हो गए। क्षणमात्र में लगता नल विजयी हो रहा है; किन्तु दूसरे ही क्षण लगता हस्त विजयी हो रहा है । इस प्रकार हर क्षण परिवर्तित होने वाली जय-पराज्य को देखकर