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एक वीणा भी सीता को दी। तब यक्ष से अनुमति लेकर इच्छा के अनुरूप वे वहाँ से प्रस्थान कर गए। गोकर्ण यक्ष ने जिस नगरी का निर्माण किया था उसे नष्ट कर दिया। (श्लोक १६३-१६७)
राम, लक्ष्मण और सीता चलते-चलते अरण्य का अतिक्रमण कर एक दिन सन्ध्या समय विजयपुर नगर के निकट पहुंचे । उस नगर के बाहर दक्षिण दिशा में एक उद्यान था। वहीं एक वटवृक्ष के नीचे वे अवस्थित हो गए।
(श्लोक १६८-१६९) उस नगरी के राजा का नाम था महीधर । उसकी रानी का इन्द्राणी और कन्या का नाम वनमाला था। वनमाला ने सौमित्र के गुणों और रूप-सम्पदा की चर्चा सुनी थी। अतः बाल्यकाल से ही वह उनके प्रति अनुरागिनी हो गई थी; किन्तु महीधर ने जब सुना कि राजा दशरथ दीक्षित हो गए और राम-लक्ष्मण वन को चले गए हैं तो बहुत दुःखी हुए और चन्द्रनगर के राजा वृषभ के पुत्र सुरेन्द्ररूप के साथ वनमाला का सम्बन्ध ठीक कर दिया।
(श्लोक १७०-१७३) वनमाला ने जब यह सुना तो मरण निश्चित कर उसी रात घर से निकल कर दैवयोग से उसी उद्यान में पहुंची जहां राम, लक्ष्मण और सीता अवस्थित थे। उसने यक्षायतन में जाकर यक्ष की पूजा की और प्रार्थना की कि आगामी जन्म में लक्ष्मण ही उसके पति बनें। वहाँ से वह उसी वटवृक्ष के समीप गई। राम और सीता तो उस समय सो गए थे; किन्तु लक्ष्मण प्रहरी की भाँति जागत थे। उन्होंने वनमाला को देखकर सोचा, यह कोई वन-देवी है या वटवृक्ष की कोई अधिष्ठात्री या कोई यक्षिणी है । इसी बीच लक्ष्मण ने सुना-'इस जन्म में लक्ष्मण मेरे पति नहीं हो सके; किन्तु यदि उनके प्रति मेरी पूर्ण भक्ति है तो आगामी जन्म में मैं उन्हें प्राप्त करू ।' तदुपरान्त लक्ष्मण ने देखा कि उसने अपने उत्तरीय को वटवृक्ष की डाल पर बाँधकर गले में फाँसी लगा ली। लक्ष्मण तत्काल वहाँ गए और उसके गले की फाँसी खोलकर उसे नीचे उतारा और बोले, 'भद्र ! मैं ही लक्ष्मण हूं, तुम यह दुःस्साहस क्यों कर रही हो?'
(श्लोक १७४-१८२) रात्रि के अन्तिम भाग में राम और सीता के जागने पर लक्ष्मण ने वनमाला का समस्त वृत्तान्त राम को सुनाया। वनमाला