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जैसे इन म्लेच्छों को जब तक मैं भगा नहीं देता हूं, आप सीता सहित यही अवस्थान करें।'
(श्लोक १०८) ऐसा कहकर लक्ष्मण ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाकर उससे टङ्कार ध्वनि की। उस टङ्कार को सुनकर सिंह की गर्जना से जिस प्रकार हाथी भयभीत हो जाता है उसी प्रकार म्लेच्छ सेना भयभीत हो उठी। सोचने लगे, जिसके धनुष की टङ्कार ऐसी असह्य है उसके बाणों का तो कहना ही क्या ? अतः म्लेच्छाधिपति राम के निकट आए। शस्त्र परित्याग कर रथ से नीचे उतरे और दीन-सा मुख लिए राम को नमस्कार किया; किन्तु लक्ष्मण क्रुद्ध दृष्टि से ही उसे देखते रहे।'
(श्लोक १०९-१११) म्लेच्छाधिपति बोला, 'हे देव, कौशाम्बीपुर में वैश्वानर नामक एक ब्राह्मण था। उसके सावित्री नामक एक पत्नी थी। मैं उन्हीं का पुत्र हं रुद्रदेव हं। मैं जन्म से कर कार्य करने वाला हं, चोर हूं, पर-स्त्री लम्पट हूं। ऐसा कोई दुष्कर्म नहीं है जिसे मैंने नहीं किया। एक बार सेंध लगाते समय राज-प्रहरियों ने मुझे पकड़ लिया। तदुपरान्त राज्याज्ञा से मुझे शूली देने के लिए ले गए। कसाई के घर बकरा जैसे दीनावस्था में रहता है, उसी प्रकार शूली के निकट मुझे खड़ा देखकर एक श्रावक के मन में दया उत्पन्न हो गई, उस महात्मा ने दण्ड का अर्थ देकर मुझे मुक्त करवा दिया और 'कभी चोरी नहीं करना' कहकर मुझे छोड़ दिया। तब मैं उस देश का परित्याग कर घूमता हुआ इस पल्ली में आया और काक नाम से प्रसिद्ध होकर क्रमशः पल्लीपति का पद प्राप्त किया। और अब तस्करों की सहायता करने के लिए नगर में जाकर लूटपाट करता हूं, राजाओं को पकड़ लाता हूं और शुल्क अदा करता हं। अत: मझे आज्ञा दें यह किंकर आपकी क्या सेवा करे ? मेरा अविनय क्षमा करें।'
(श्लोक १११-११९) राम ने उस किरातपति से कहा, 'वालिखिल्य राजा को मुक्त कर दो।' उसने उसी क्षण वालिखिल्य राजा को मुक्त कर दिया। उन्होंने आकर राम को प्रणाम किया। राम की आज्ञा से काक ने वालिखिल्य को कुवेर नगर में पहुंचा दिया। वहाँ उन्होंने अपनी पुत्री कल्याणमाला को पुरुष वेश में देखा। तदुपरान्त कल्याणमाला और वालिखिल्य ने एक-दूसरे को अपनी कथा सुनाई।