________________
जाने पर जीवित रहना मृत्यु से भी अधिक कष्टकर है ।
[103
( श्लोक ३५८ - ३६० )
ऐसा विचार कर मृत्यु का संकल्प ले मानिनी वे भीतरी कक्ष में गई और वस्त्र द्वारा फाँसी लगाने का उपक्रम करने लगीं । ठीक उसी समय राजा दशरथ वहाँ पहुंचे । मरणोन्मुख कौशल्या को उस अवस्था में देखकर भयभीत राजा ने शीघ्र ही फाँसी का फन्दा खोलकर उन्हें अपनी गोद में बैठाया और पूछा, 'प्रिये, क्या किसी ने तुम्हारा अपमान किया है जिसके कारण तुम ऐसा दुःस्साहस कर रही थी ? अथवा दैवयोग से मेरे द्वारा तो तुम्हारा कोई अपमान नहीं हुआ ?' तब कोशल्या गद्गद् कण्ठ से बोली, 'देव, आपने सभी रानियों को स्नात्र जल भेजा; किन्तु मुझे नहीं भेजा – क्यों ? ' ( श्लोक ३६१-३६४) कौशल्या के अपना वाक्य पूर्ण करने के पूर्व ही वृद्ध अधिकारी 'यह स्नान - जल है, इसे महाराज ने भेजा है ।' कहते-कहते वहाँ उपस्थित हुआ । ( श्लोक ३६५ )
-
राजा ने तुरन्त उस पवित्र जल से रानी का मस्तक अभिसिंचित किया। फिर वृद्ध पुरुष से पूछा, 'भद्र, तुमने आने में इतनी देर क्यों कर दी ?' वृद्ध पुरुष ने उत्तर दिया, 'स्वामिन्, सर्व कार्यों में असमर्थ इसका दायित्व मेरी वृद्ध अवस्था पर हो है आप मेरी ओर देखें ।' ( श्लोक ३६६-३६७ ) राजा ने उसकी ओर देखा । मरणोन्मुख व्यक्ति की तरह उसका पैर हिल रहा था । मुँह से लाल गिर रही थी । दाँत टूट चुके थे । ललाट पर थी बलिरेखा । भौहों के केशों से नेत्र आच्छादित थे । देह का मांस और खून सूख गया था । वह थरथर काँप रहा था । ( श्लोक ३६८ - ३६९ )
वृद्ध पुरुष की यह अवस्था देखकर राजा सोचने लगे- मुझे इस अवस्था को प्राप्त होने के पूर्व ही मोक्ष प्राप्ति का प्रयत्न करना चाहिए । इस विचार ने उनके हृदय को वैराग्य से भर दिया । फिर भी कुछ दिनों तक विषयों से विरक्त होते हुए भी वे संसार में रहे । ( श्लोक ६७० - ३७१) एक बार चार ज्ञान के अधिकारी सत्यभूति नामक महामुनि संघ सहित अयोध्या आए । राजा दशरथ पुत्रों और परिवार संहित