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लिए लता-तुल्य है।'
(श्लोक ३३१) विदेहा को इस प्रकार समझा-बुझाकर दूसरे ही दिन सुबह जनक के मण्डप स्थित मंच पर दोनों धनुष-रत्नों को पूजा कर रख दिया। राजा ने सीता के स्वयम्वर में विद्याधर और मनुष्य राजाओं को आमन्त्रित किया। वे आए और एक-एक कर मण्डप स्थित सिंहासन पर बैठने लगे। व (श्लोक ३३२-३३३)
तदुपरान्त अलङ्कार धारण कर सखियों से घिरी हई सीता मण्डप में आई। उसे देखकर लगा मानो कोई देवी धरती पर पैदल चल रही है। लोगों की दृष्टि के लिए अमृत तुल्य सीता ने सविता की तरह राम का ध्यान कर धनुष की पूजा की और वहीं खड़ी हो गई।
__ (श्लोक ३३४-३३५) नारद के कथानुसार सीता का रूप देखकर भामण्डल कामातुर हो उठा। उसी समय जनक का द्वारपाल हाथ ऊँचा करके बोलने लगा, 'हे विद्याधर और पृथ्वी के राजागण, सुनिए-राजा जनक ने घोषणा की है कि इन दोनों धनूषों में से किसी एक में जो प्रत्यंचा चढ़ा सकेगा उसे मेरी कन्या प्राप्त होगी।'
(श्लोक ३३६-३३८) यह सुनकर एक-एक कर विद्याधरराज और पृथ्वी के राजागण धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के लिए धनुष के निकट जाने लगे; किन्तु प्रत्यंचा चढ़ाना तो दूर वे लोग भयङ्कर सो से वेष्टित. जिससे तीव्र ज्वालाएँ निकल रही थी ऐसे धनुषों का स्पर्श भी नहीं कर पाए। बहुत से धनुष से निकलने वाले अग्नि स्फुलिंग से दग्ध होकर लज्जा से मस्तक नीचा किए अपने-अपने आसन पर जा बैठे। तब सुवर्णमय कुण्डल को आन्दोलित करते हुए दशरथ पुत्र राम गजेन्द्र गति से धनुष के पास जाकर उपस्थित हुए। उस समय चन्द्रगति आदि राजा उपहास की दृष्टि से और राजा जनक सशङ्क दृष्टि से राम की ओर देखने लगे। सौमित्र के अग्रज राम ने तब निःशङ्क होकर इन्द्र जैसे बज्र का स्पर्श करता है उसी प्रकार बज्रावर्त धनुष को हाथों से स्पर्श किया। तुरन्त ही उससे निकलते सर्प एवं अग्नि ज्वालाएँ शान्त हो गई। तब धनुर्धारियों में श्रेष्ठ राम ने उस धनुष को लौहपीठ पर रखकर बेत की तरह झुकाया, उस पर प्रत्यंचा चढ़ाई और कानों तक खींचकर टङ्कार की। उस