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[८५ 'देशना शेष होने पर वे मुनिराज को प्रणाम कर बोलेभगवन्, हमने पापी होने पर भी आज भाग्योदय से आपका दर्शन प्राप्त किया है। आप तो स्वभाव से ही सबके प्रति करुणाशील हैं। फिर भी हम दुःखी आपसे अनुरोध करते हैं, हे जगत्पूज्य, हमें कोई ऐसी तप-विधि का विधान दें जो हमें इस दारिद्रय से मुक्त कर दे। मुनि ने उनके उपयुक्त बत्तीस कल्याणक तप का विधान दिया। वे सम्मत होकर घर लौट आए और तीन-तीन दिनों के दो उपवास, एक-एक दिन के बत्तीस उपवास किए। व्रत के पारणे के दिन वे दरवाजे की ओर देखते हुए किसी अतिथि रूप में मुनि की प्रतीक्षा करने लगे । ठीक उसी समय मुनि धृतिधर उनके घर में प्रविष्ट हुए। मुनि धतिधर को उन्होंने भक्ति-भाव से आहार-पानी बहराया।
(श्लोक २३७-२४२) 'कालान्तर में मुनि सर्वगुप्त पुनः वहां लौट आए। वे फिर देशना सुनने गए । देशना सुनकर विवेकशील होने के कारण मानवजन्म को कल्पवृक्ष रूप फल प्रदान करने वाली मुनि दीक्षा ग्रहण कर ली। गुरु के आदेश से मुनि राजगुप्त ने कठिन आचामाम्ल (आयंबिल) वर्द्धमान तप किया और अन्त में चार शरण ग्रहण कर, अनशन धारण कर लिया। मृत्यु के पश्चात् दस सागरोपम की आयु लेकर वे ब्रह्मलोक में देव-रूप में उत्पन्न हुए ।
(श्लोक २४३-२४६) 'ब्रह्मलोक से च्युत होकर राजगुप्त विद्युद्रथ के पुत्र रूप में विद्याधरराज सिंहरथ हुए। इनकी पत्नी सिंहिका भी बहुविध तपस्या कर ब्रह्मलोक में देवरूप में उत्पन्न हुई । वहां से च्युत होकर उनकी पत्नी रूप में उत्पन्न हुई। अब वे स्व-नगर लौटकर अपने पुत्र को सिंहासन पर बैठाकर मेरे पिता से दीक्षा ग्रहण करेंगे। तप और ध्यानादि से अष्टकर्मों को क्षय कर केवलज्ञान प्राप्त करेंगे और अन्त में मोक्ष जाएँगे।
(श्लोक २४७-२५०) __यह विवरण सुनकर सिंहस्थ मेघरथ को भक्ति-भाव से प्रणाम कर अपने राज्य को लौटे और पुत्र को सिंहासन पर बैठाया । मन उपशान्त होने से उन्होंने धनरथ से दीक्षा ग्रहण की और तपादि अनुष्ठान कर मोक्ष प्राप्त किया।
(श्लोक २५१-२५२) अन्तःपुरिका और अनुचरादि सहित राजा मेघरथ देवरमण