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'हे राजन्, पृथ्वी पर भ्रमण करते हुए मैंने आज ऐसी वस्तु देखी है जो स्वर्ग में भी नहीं है । मैं इधर-उधर घूमता हुआ राजा अनन्तवीर्य की राजसभा में पहुंचा । वहाँ बर्बरी और किराती दो क्रीतदासियों को अभिनय करते देखा । मैं कौतुक के लिए स्वर्ग और मृत्यु उभय लोकों में ही जाता हूं; किन्तु ऐसा अभिनय स्वर्ग में भी नहीं देखा । सौधर्म देवलोक की सर्वोत्तम वस्तु जैसे शक्र के अधिकार में है वैसे ही भरत के विखण्ड की जो सर्वोत्तम वस्तुएँ हैं वे तो वस्तुतः आपकी ही हैं । आपकी विद्या, शक्ति, ऐश्वर्य, आधिपत्य, यहाँ तक कि आपके साम्राज्य की भी क्या शोभा है यदि आप उन्हें यहाँ न ला सकें ?' ( श्लोक ७४-८० ) इस प्रकार विरोध का बीज वपन कर स्व- मनोरथ सिद्ध हो जाने से नारद ने तत्काल वहाँ से प्रस्थान किया । ( श्लोक ८१ ) त्रिखण्ड के आधिपत्य के लिए गर्वित दमितारि ने उसी मुहूर्त में अनन्तवीर्य के पास दूत भेजा । दूत सुभा नगरी में गया और अपने वाक्चातुर्य से अनन्तवीर्य और अपराजित को इस प्रकार बोला'भरत के त्रिखण्ड में जो भी सर्वोत्तम वस्तु है वह महाराज दमितारि की है । अतः दोनों क्रीतदासियाँ बर्बरी और किराती को उनके यहाँ भेजिए । वे समस्त राज्यों के अधिपति हैं । इसलिए दासी आदि सब कुछ उन्हीं की है । जब गृह ही उनका है तब क्या गृह-वस्तुओं को पृथक किया जा सकता है ? ' ( श्लोक ८२-८६ ) तब अनन्तवीर्य बोले- 'दूत, तुम अभी जाओ । हम लोग अभी परामर्श कर बाद में उन्हें भेज देंगे ।' ( श्लोक ८७ ) दूत प्रसन्न होकर चला गया और दमितारि को बोला'आपका आदेश प्रतिपालित हुआ है ।' ( श्लोक ८८ )
राख के ढेर के नीचे आग दबी रहती है उसी प्रकार स्व-क्रोध दबा कर अपराजित और अनन्तवीर्य दोनों ने विचार किया कि दमितारि ने हमें अपने विमान और विद्यालब्ध शक्ति के कारण ही ऐसा आदेश दिया है । इससे भी वह हमें पराजित नहीं कर सकता । विद्याधर मित्र ने हम लोगों को जो महाविद्या दी थी उस विद्या को यदि हम अधिगत कर लें तो वह हम लोगों के सम्मुख खड़ा भी नहीं रह सकता । ( श्लोक. ८९-९१ )
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