________________
३४]
उपत्यका में आकर उपस्थित हो गए हैं । कदलीपत्रों को देखकर लगा मानो पथिकों को वीजन कर वे उनका श्रम अपहरण कर रहे हैं । पथ श्याम तृणावृत होने से लगता था मानो उसे मरकत मण्डित किया गया है । पवन लवंग, इलायची, कक्कोल, लावलि की गन्ध वहन कर मानो सुगन्धवाहिनी परिचारिका-सी उनकी सेवा में प्रवृत्त हो गई है । ( श्लोक ३७ - ४५ ) अल्प विश्राम के पश्चात् कुछ अग्रसर होते ही स्तिमितसागर ने एक वृक्ष के नीचे उन मुनि को प्रतिमा धारण कर ध्यानावस्था में अवस्थित देखा । अत्यन्त शोत से जैसे देह सिहर जाती है वैसे ही भक्ति के कारण राजा की देह सिहर उठी । उन्होंने मुनि को परिक्रमा देकर वन्दन किया। मुनि ने भी ध्यान भङ्ग कर उन्हें धर्म लाभ दिया । महात्मा दूसरे का उपकार होते देख कर अपना कार्य स्थगित कर देते हैं । मुनि स्वयंप्रभ ने देशना दी जो कि श्रोता के लिए प्रमाण सहित प्रत्यक्षज्ञान रूप थी
।
( श्लोक ४३ - ४७ )
उस देशना को सुनकर राजा स्तिमितसागर तत्क्षण बोधिप्राप्त हुए । राज प्रासाद लौटकर अनन्तवीर्य को राज पद पर अभिषिक्त किया । अनन्तवीर्य और अपराजित द्वारा अभिनिष्क्रमण उत्सव सम्पन्न करने पर स्तिमितसागर ने स्वयंप्रभ मुनि से दीक्षाग्रहण कर ली । कठिन परिषहों को सहन करते हुए उन्होंने मूलगुण और उत्तरगुणों की दीर्घ काल तक रक्षा की । किन्तु बाद में मानसिक विराधना से चलित होकर मृत्यु के पश्चात् भवनपति देवों में चमरेन्द्र रूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक ४८- ५१ )
साहसिकों में अग्रगण्य और देवों द्वारा भी अपराजेय अनन्तवीर्य स्व-अग्रज अपराजित सहित राज्य संचालन करने लगे । कालान्तर में एक विद्याधर से उनकी मित्रता हुई । कारण महान् लोगों की मित्रता महान् लोगों से ही होती है । उस विद्याधर ने प्रसन्न होकर उन्हें एक महाविद्या दी और 'विद्यार्जन में तुम सफल हो' कहकर वैताढ्य पर्वत पर चले गए । ( श्लोक ५२-५४) अनन्तवीर्य और अपराजित के बर्बरी और किराती नामक दो क्रीतदासियाँ थीं । वे नृत्य-संगीत में जितनी निपुण थीं उतनी ही अभिनय पटु भी थीं । रम्भा से भी अधिक सुन्दर नृत्य-गान और