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भयंकर पाप हमने किया है ऐसा पाप तो भविष्य में शायद कोई नहीं करेगा। कारण, हम पापियों में भी अधम हैं । हम विश्वासघातकों से भी नीच है कारण हम उसकी जीवन्त मृत्यु का कारण बन गए हैं । धिक्कार है हम मन्द विवेकियों को जिन्होंने इन्द्रियों की तृप्ति के लिए ऐसा कार्य किया है । लगता है इस पाप के फलस्वरूप नरक में भी हमें स्थान नहीं मिलेगा। वे उच्चमना धन्य हैं जो स्वइन्द्रियों को संयमित रख इन्द्रिय सूख से निवृत्त हो जाते हैं क्योंकि यह परिणाम में दुःखदायक होता है । जो दिन-रात जिन-वाणी का श्रवण और पालन करते हैं वे ही धन्य हैं । कारण, वे अन्यों के भी उपकारी होते हैं।
(श्लोक ६८-७९) जिस समय वे इस प्रकार पश्चाताप और धर्मरत जीवों की प्रशंसा कर रहे थे उसी समय सहसा विद्युत्पात से दोनों की मृत्यु हो गयी। दोनों का परस्पर प्रेम और शुभ भावना में मृत्यु होने के कारण वे हरिवर्ष में यूगल रूप में उत्पन्न हए। उनके माता-पिता ने उनका नाम रखा हरि और हरिणी। पूर्व जन्म की ही भांति पति और पत्नी रूप में एक मुहूर्त के लिए भी वे विच्छिन्न नहीं होते थे । दस कल्पवृक्षों के द्वारा उनकी समस्त इच्छा पूर्ण होने लगी। अतः सुख भोग करते हुए वे देवों की तरह रहने लगे। (श्लोक ८०-८३)
___ राजा और वनमाला की वज्राघात से मृत्यु हो जाने के पश्चात् वीर ने कठोर प्रज्ञान तप किया और मृत्यु के पश्चात् सौधर्म देवलोक के किल्विषक देव रूप में जन्म ग्रहण किया । अवधि ज्ञान से जब उसे अपना पूर्व भव और हरि-हरिणी के विषय में ज्ञात हुआ तब क्रोध से आँखें लाल कर यम की भाँति भकुटि ताने उन्हें मारने के लिए हरिवर्ष गया। किन्तु वहाँ जाकर उसने सोचा यहाँ इनकी हत्या करने से क्षेत्र के कारण मृत्यु के पश्चात् ये स्वर्ग में उत्पन्न होंगे, इससे मेरा उद्देश्य सिद्ध नहीं होगा । अतः मैं अपने इन पूर्व जन्म के शत्रुओं को अन्य क्षेत्र में ले जाऊँ ताकि वहाँ विविध कष्टों को भोग कर ये अकाल मृत्यु को प्राप्त हों। (श्लोक ८४-८८)
ऐसा सोचकर वह देव कल्पवृक्ष सहित उनका अपहरण कर भरत क्षेत्र की चंपा नगरी में ले गया। ठीक उसी समय वहाँ के इक्ष्वाकुवंशीय राजा चन्द्रकीर्ति की मृत्यु हो गयी । उनके कोई पुत्र नहीं था। योगीगण जिस प्रकार आत्मा का अनुसन्धान करते हैं उसी