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१०८] पास आए और उनकी वश्यता स्वीकार की। गंगा के दक्षिण प्रान्त पर जहां म्लेच्छ रहते थे उसे गांव जीतने की भांति सेनापति ने अनायास जीत लिया। इस प्रकार आठ सौ वर्षों के पश्चात् भरत क्षेत्र के छह खण्डों को छह रिपूओं की भांति जीत कर चक्री ने वहां से प्रत्यावर्तन किया।
(श्लोक २४८-२५१) दीर्घ पथ अतिक्रमण कर नरकुञ्जर शान्तिनाथ क्रमशः श्री के निवास रूप हस्तिनापुर लौट आए। देवों की भांति पलकहीन नेत्रों से नागरिक एवं ग्रामीणों ने उन्हें स्व-प्रासाद में प्रवेश करते देखा । शान्तिनाथ का चक्रीपद पर अभिषेक देवों और मुकुटबद्ध राजाओं ने किया। यह उत्सव बारह वर्षों तक हस्तिनापुर में चला । इन बारह वर्षों तक हस्तिनापुर को दण्ड या कर से मुक्त कर दिया गया। तदुपरान्त वे एक हजार अनुचर यक्ष, चौदह रत्न और नवनिधियों द्वारा स्वतन्त्र भाव से अभिषिक्त हुए। वे चौंसठ हजार रानियों से परिवृत थे। उनके हाथी, रथ और अश्व प्रत्येक की संख्या चौंसठ-चौंसठ हजार थी। वे छियानवे करोड़ गांव, छियानवे करोड़ पदातिक और बत्तीस-बत्तीस हजार राज्य व राजन्य के अधीश्वर थे। उनके ३७३ रसोइए थे और उनके राज्य में १८ जातियां एवं १८ उपजातियां थीं। वे ७२ हजार वृहद् नगर, ३९९ हजार पत्तन, ४८ हजार द्रोणमुख, २४ हजार सामान्य नगर और मण्डलों के अधीश्वर ये । वे २० हजार रत्नों की खाने, १६ हजार खेट, १४ हजार निगम और ५५ अन्तर्वीपों के मालिक थे। वे ३९ कर्वटों के प्रमुख और अवशिष्ट समस्त भरत के छह खण्डों के अधीश्वर थे । चक्रवर्ती पद पर अभिषिक्त होने के पश्चात् ८०० वर्ष कम १९ हजार वर्ष तक नृत्य-गीत अभिनयादि देखकर पूष्प चयन एवं जलक्रीड़ादि करते हुए उन्होंने व्यतीत किए। (श्लोक २५२-२६६)
उसी समय भूकम्प द्वारा कम्पित हुए हैं इस प्रकार ब्रह्मलोक के लोकान्तिक देवों के सिंहासन कम्पित हुए। सारस्वत आदि देवों ने चकित होकर सोचा यह क्या हुआ ? फिर अवधि ज्ञान के प्रयोग द्वारा एक दूसरे को बोले-'सुनो-सुनो, जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध में अर्हत् शान्तिनाथ का दीक्षाकाल उपस्थित हुआ है। उनकी शक्ति से मानो चैतन्य प्राप्त कर सिंहासनों ने उनकी दीक्षापूर्व के हमारे कर्तव्यों का स्मरण करा दिया है। तीन ज्ञान के धारक