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सिंहासन कम्पित होने से शक तीर्थङ्कर का जन्म अवगत कर अनुचरों सहित पालक विमान में बैठकर वहां आया । हे रत्नगर्भा, मैं आपको प्रणाम करता हूं' कहकर उन्होंने तीर्थङ्कर-माता को प्रणाम किया और अवस्वापिनी निद्रा में निद्रित कर उनके पार्श्व में अर्हत् का प्रतिरूप रखकर चार दर्पणों में प्रतिबिम्बित होने की भांति पांच रूप धारण किए। एक रूप में उन्होंने प्रभु को गोद में लिया, अन्य दो रूपों में हाथ में चवर, एक रूप में छत्र और पांचवें रूप में वज्र धारण कर प्रभु के आगे-आगे चलने लगे । मुहूर्त मात्र में वे मेरुपर्वत स्थित अतिपाण्डकवला में उपस्थित हुए और प्रभु को गोद में लेकर वहां रखे हुए सिंहासन पर बैठ गए । तदुपरान्त अच्युतादि अन्य त्रेसठ इन्द्र मानो पूर्व सूचनानुसार आए हों इस भांति सिंहासन कम्पित होने के कारण वहां उपस्थित हो गए। समुद्र, नदियों एवं सरोवर आदि से लाए जल से अच्युतेन्द्र ने प्रभु को स्नान करवाया । तदुपरान्त अन्य त्रेसठ इन्द्रों ने भी नव-जातक को स्नान करवाया। फिर ईशानेन्द्र ने पांच रूप धारण कर एक रूप से प्रभु को गोद में लिया, अन्य तीन रूप से छत्र चामरादि लेकर पांचवें रूप में त्रिशूल धारण किए उनके सम्मुख खड़े हो गए। मुहतं मात्र में तब शक ने प्रभात के निर्मल आलोक-से प्रभु के चारों ओर चार स्फटिक वृष निर्मित किया। मानो फुआरे से जल निकल रहा है, इस प्रकार निर्मल जल उनके सींगों से निकाल कर भगवान् का स्नानाभिषेक करने लगे। तदुपरान्त देवदूष्य वस्त्र से उनकी देह पोंछकर गोशीर्ष चन्दन का लेप किया और दिव्य अलङ्कार एवं मालाओं से उन्हें विभूषित किया। तत्पश्चात् यथाविधि उनकी आरती कर आनन्द विह्वल होकर निम्नलिखित मंगलकर स्तव पाठ करने लगे :
(श्लोक ७२-८४) _ 'जो समस्त जगत् के कल्याण कारण हैं, महान् उदार हैं, संसार रूप मरुस्थल के लिए एकमात्र छाया प्रदानकारी वृक्षरूप हैं ऐसे आपको, हे भगवन्, मैं प्रणाम करता हूं। हे देवाधिदेव, रात्रि संचित पाप । र्मों के लिए ऊषा रूप आपको साक्षात् सौभाग्योदय से ही आज मैंने प्राप्त किया है । हे त्रिलोकनाथ, आपके दर्शन कर आज मेरे नेत्र सार्थक हो गए हैं, उनके हाथ भी सार्थक हुए हैं जिन्होंने हाथों से आपका स्पर्श किया है। एक समय आप विद्याधरों