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'अनन्त क्लेशरूपी तरंगों से भरा यह भव-सागर ऊर्ध्व, अधः और मध्यलोक के प्राणी को सर्वदा क्लिष्ट करता है । विष्ठादि अशुचि पदार्थ में जिस प्रकार कीटादि की प्रीति होती है उसी भांति देह - प्रीति ही इसका कारण है । रस, रक्त, मांस, चर्बी, अस्थि, मज्जा, वीर्य, आंत और विष्ठादि अपवित्र द्रव्यों से ही इस देह की रचना हुई है । इसमें पवित्रता कहां ? नवद्वारों से निरन्तर झरती अशुचियों में पवित्रता की कल्पना करना ही वहा मोह है । वीर्य और रुधिर से उत्पन्न मलिन रस में वर्धित और जरायु आदि से आवृत्त इस देह में पवित्रता कैसे हो सकती है ? माँ के द्वारा भक्षित अन्न-जल से उत्पन्न रस जो नाड़ियों से प्रवाहित होकर आया है उसे पान किए हुए शरीर में पवित्रता किस प्रकार रह सकती है ? दोष, धातु और मलपूर्ण कृमि कीटादि का आवास रूप और व्याधिरूप सर्प दंशित देह को कोई पवित्र नहीं कह सकता । स्वादिष्ट अन्न, जल, खीर, इक्षु और घृतादि इस देह में जाने के पश्चात् विष्ठादि घृण्य पदार्थों में रूपान्तरित हो जाता है ऐसे शरीर को कौन पवित्र कहेगा ? यक्ष- कर्दमादि सुगन्धित द्रव्य इस शरीर पर लेपन करने से तत्क्षण ही वे मल रूप में परिवर्तित हो जाते हैं । ऐसे शरीर में पवित्रता कहां ? ताम्बूलादि सुगन्धित द्रव्य चर्वण कर सोया हुआ मनुष्य जब सुबह उठता है तब उसे अपने ही मुख की गन्ध से घृणा हो जाती है । ऐसी अवस्था में कौन शरीर को पवित्र कहेगा ? सुगन्धित पुष्प, पुष्पमाला और धूपादि देह - सम्पर्क में आकर दुर्गन्धयुक्त हो जाते हैं ऐसे शरीर को शुद्ध नहीं कहा जा सकता । जिस प्रकार मद्य का घड़ा दुर्गन्धयुक्त रहता है उसी प्रकार शरीर पर सुगन्धित तेल लेपन और उबटन द्वारा स्वच्छ किए व एकाधिक घड़ों के जल से धौत करने पर भी रस की अपवित्रता नहीं जाती । जो कहते हैं मृत्तिका जल, अग्नि, वायु और सूर्य किरणों से स्नान करने पर शरीर पवित्र होता है वे वास्तविकता नहीं जानते । केवल शरीर को ऊपर से देखकर ही सन्तुष्ट हो जाते हैं । अतः तपस्या कर शरीर से मोक्ष रूपी फल उत्पन्न करना चाहिए | जैसे विज्ञ लवण समुद्र से रत्न बाहर निकलते हैं उसी प्रकार देह से भी सार निकालना उचित है ।' ( श्लोक ८९ - १०३ ) इस देशना से प्रतिबोधित होकर हजारों लोगों ने श्रामण्य