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को धारण कर ध्यान में लीन रहते हुए नौ मास पर्यन्त समस्त पृथ्वी पर विचरण किया । (श्लोक ६९-७१) विचरण करते हुए वे पुनः सहस्राम्रवन उद्यान में लौट आए एवं शिरीष वृक्ष तले दो दिनों के उपवासी प्रतिमा धारण कर अवस्थित हो गए । प्रभु ने शुक्ल ध्यान के द्वितीय पाद के अन्त में संसार- वृद्धि के कारण रूप घाती कर्मों को विनष्ट किया । फाल्गुन कृष्णा अष्टमी को जबकि चन्द्र विशाखा नक्षत्र में था भगवान् सुपार्श्वनाथ को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ । (श्लोक ७२-७४) भृत्य की भाँति देवेन्द्र और असुरेन्द्र मुहूर्तमान में वहाँ उपस्थित हुए और प्रभु की देशना के लिए समवसरण का निर्माण करवाया । तब त्रिजगत्पति मानो मोक्ष के द्वार में प्रवेश कर रहे हैं इस प्रकार पूर्व द्वार से उसमें प्रविष्ट हुए । पृथ्वी के कल्पवृक्ष रूप भगवान् ने चैत्य वृक्ष को तीन प्रदक्षिणा दी । वह चैत्यवृक्ष एक कोस और ४०० धनुष दीर्घ था । तदुपरान्त 'नमो तित्थाय' कहकर दिव्य अतिशयों से युक्त भगवान् श्रेष्ठ सिंहासन पर उपवेशित हुए । माँ पृथ्वी ने स्वप्न में जैसा सर्प देखा था इन्द्र ने वैसा ही एक सर्प प्रभु के मस्तक पर निर्मित किया । यह द्वितीय छत्र - सा लगता था । उसी समय से प्रभु के अन्य समवसरणों में एक फण, पाँच फण और नौ फणों से युक्त सर्प स्थापित होने लगे । उन्हीं की शक्ति से देवों ने उनके अनुरूप तीन प्रतिबिम्बों का निर्माण कर उन्हें अन्य तीनों ओर रखा । इस प्रकार यथास्थान समवसरण नियोजित हुआ । साधारण मनुष्य भी भीड़ न कर यथास्थान अवस्थित हो गए। (श्लोक ७५ - ८२)
तदुपरान्त सौधर्म कल्प के इन्द्र ने दोनों हाथ ललाट पर लगाकर वन्दना कर निम्नलिखित स्तुति की :
'हे सप्तम तीर्थंकर, पृथ्वी रूप कमल के लिए सूर्य रूप भगवान् आपको नमस्कार है । हे भगवन्, सभी के दुःखों का अवसान हो गया और आनन्द लौट आया है। संघ की प्रतिष्ठा में मानो सब कुछ प्रतिष्ठित हो गया है । हे धर्मचक्रवर्ती, आपकी वाणी के दिव्य दण्ड रत्न से आज वैताढ्य पर्वत के द्वार की भाँति मोक्ष द्वार खुल जाएगा । मेघोदय जैसे उत्ताप को विनष्ट कर आनन्द का संचार करता है उसी प्रकार आपका अभ्युदय वेदना को नाश कर समस्त जीव-जगत् में आनन्द का संचार करता है । दरिद्र को धन