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तुल्य थे अतः उनके बाहरी अलंकार तो मात्र अलंकृत ही होते थे। ताम्रपर्णी नदी में जिस प्रकार मुक्ता शोभा पाते हैं निष्कलंक उनमें उसी प्रकार विभिन्न गुण शोभा पाते थे। पद्म-मुख, पद्म-लोचन, पद्म-हस्त, पद्म-चरण युक्त उनकी देह मानो श्री देवी का लावण्य तरंग युक्त अन्य पद्म-सरोवर था। वे तीर्थङ्कर की माँ बनेंगी इस भावना से और उनके रूप के कारण देवियां आकर उनकी सेवा करतीं।
(श्लोक २२-२६) षष्ठ वेयक विमान से नन्दीसेन के जीव ने अपनी अट्ठाईस सागरोपम की आयुष्य पूर्ण की। भाद्र कृष्णा अष्टमी को चन्द्र जब राधा नक्षत्र में था तब नन्दीसेन के जीव ने च्यूत होकर पृथ्वी देवी के गर्भ में प्रवेश किया। सुख-शय्या पर सोई पृथ्वी देवी ने रात्रि के शेष भाग में तीर्थङ्कर के जन्म-सूचक चौदह महास्वप्न देखे । गर्भ के बढ़ने के समय उन्होंने स्वयं को एक, पांच और नौ फणों से युक्त सर्प की शय्या पर सोते हुए देखा । ज्येष्ठ शुक्ला द्वादशी को चन्द्र जब विशाखा नक्षत्र में था तब उन्होंने बिना किसी कष्ट के स्वर्ण-वर्ण, स्वस्तिक चिह्नयुक्त एक पुत्र को जन्म दिया।
(श्लोक २७-३१) छप्पन दिक्कुमारियां अवधिज्ञान से तीर्थंकर का जन्म अवगत कर तीव्रगति से वहां आईं और जन्म समय की क्रियाएँ सम्पन्न की।
इस भाँति शक्र भी वहां आए और जगत्पति को मेरु-शिखर स्थित अतिपाण्डुकवला नामक शिला पर ले गए। धात्री की भांति जगन्नाथ को गोद में लेकर वे रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठे । त्रेसठ इन्द्रों ने पर्याय-क्रम से तट-स्थित पहाड़ को समुद्र तरंग जैसे अभिषिक्त करती है उसी प्रकार तीर्थजल से तीर्थपति को अभिषिक्त किया। भगवान् को ईशानेन्द्र की गोद में देकर शक ने फुहारें निकलते जल की तरह स्फटिक वषों के सींगों से निकलते जल से उनको अभिषिक्त किया। भगवान् की देह पर गो-शीर्ष चन्दनादि विलेपन कर वस्त्राभूषणों से उनकी उपासना कर सौधर्मेन्द्र ने इस प्रकार स्तुति की :
(श्लोक ३२-३७) 'अगम्य स्वभाव सम्पन्न आपकी स्तुति करने का प्रयास मेरे लिए बन्दर का छलांग लगाकर पूर्य को पकड़ने जैसा है। फिर भी भगवन्, आपकी शक्ति से मैं आपकी स्तुति करूंगा। कारण,