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____ 'जब देवों का आयुष्य छह महीने का रहता है तब अपनी देह में मृत्यु-चिह्न देखकर भयभीत हुए वे सोचते हैं उनका च्यवन कहाँ होगा? जैसे-जैसे उनकी अम्लान पारिजात माला मलिन होती जाती है वैसे-वैसे उनका मुख-कमल भी मलिन होने लगता है। जिस कल्पवृक्ष को प्रबल झंझावात भी कम्पित नहीं कर सकता वही कल्पवृक्ष च्यवन समय जितना ही निकट होता है उतना ही शिथिल होता जाता है। उत्पत्ति के समय प्राप्त प्रियलक्ष्मी व लज्जा उनका परित्याग कर देती है मानो वे अपराधी हैं । निरन्तर निर्मल और सुशोभित रहने वाले उनके वस्त्र भी मलिन और अशोभनीय हो जाते हैं। मृत्यु-समय निकट आने पर चींटियों के जैसे पंख निकल आते हैं उसी भाँति देव अदीन होने पर भी दीन और बीतनिद्र होने पर भी निद्रा के वशीभूत हो जाते हैं। दुःखों से आकुल होकर जैसे मनुष्य मृत्यु की कामना करता है वैसे ही वे न्याय और धर्म परित्याग कर विषय के प्रति अनुरागी होते हैं। यद्यपि देवों को कोई रोग नहीं होता, फिर भी मृत्यु निकट आने पर उनका शरीर शिथिल हो जाता है और सन्धि स्थलों में वेदना अनुभूत होती है। उनके नेत्रों की दृष्टि सहसा धुधली हो जाती है जैसे दूसरों के ऐश्वर्य को देखकर दृष्टि मन्दीभूत होती है। भविष्य में गर्भावास में रहना होगा यह सोचकर और उस घृणित दुःखमय स्थिति का अनुभव कर उनकी देह इस प्रकार काँपने लगती है कि दूसरे भी भयभीत हो जाते हैं । इस भाँति च्यवन चिह्न देखकर और अपना प्रयाणकाल निकट जानकर वे इस प्रकार व्याकुल हो जाते हैं जिस प्रकार अग्नि में दग्ध होकर मनुष्य व्याकुल हो जाता है। उस समय न विमान, न वापिका और न नन्दनवन ही उनको आनन्द दे पाता है। उस समय वे इस भाँति विलाप करते हैं-'हे मेरी प्राण प्रिय देवांगना, हे मेरे विमान, हे मेरे कल्पवृक्ष और वापिका, मैं तुम सबसे कितना दूर चला जाऊँगा? फिर कब तुम सबको देख पाऊँगा? हे प्राण प्रिय तुम्हारी अमृत-सी हँसी, अमृत-से तुम्हारे रक्ताधर, असृत-सी तुम्हारी वाणी, तुम्हारा सौन्दर्य अब किसका होगा? यह रत्न-जड़ित स्तम्भयुक्त देव विमान, मणिमय भूमि और रत्नमय वेदिका को अब न जाने कौन व्यवहार करेगा? हे रत्नमय सोपानयुक्त व रक्त और नील उत्पल शोभित वापिका, अब न जाने कौन तुम्हारा उपभोग