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' तिर्यङ्क गति प्राप्त होने पर एकेन्द्रिय जीव रूप में उत्पन्न होकर वे पृथ्वीकायिक होकर हल आदि अस्त्रों द्वारा खोदित और विदारित होते हैं, हस्ती - अश्वादि द्वारा पीसे जाते हैं, जल प्रवाह
प्लावित होते हैं । और दावाग्नि द्वारा दग्ध होते हैं । कटुतीक्षादि रस और मूत्रादि द्वारा व्यथित होते हैं । यदि लवणत्व प्राप्त हो तो ऊष्ण जल में सिद्ध किए जाते हैं । कुम्हारादि द्वारा वे खोदित व पेषित होकर ईंट आदि में रूपान्तरित होते हैं । फिर उन्हें पकाने के लिए अग्नि को जलाया जाता है। कीचड़ में मिलाकर दीवारों पर चिपकाया जाता है । पत्थर की छेनी आदि अस्त्रों से तोड़ा जाता है। पहाड़ी नदियां भी पृथ्वीकायिक जीव का छेदन - भेदन करती हैं ।' ( श्लोक १०० - १०४ ) 'यदि वे अपकायिक जीव में परिणत होते हैं तो सूर्य के प्रचण्ड ताप में उन्हें जलना पड़ता है, बरफ के रूप में घनीभूत बनना पड़ता है, रज द्वारा शोषित होना होता है । क्षारादि रस के सम्पर्क से मृत्यु को प्राप्त होना पड़ता है । पात्र में रखकर उन्हें दग्ध किया जाता है, पिपासु उन्हें पान करते हैं ।' ( श्लोक १०५ - १०६ ) 'तेजकायिक रूप में उत्पन्न होने पर उन्हें जल में निर्वापित किया जाता है, हथौड़ी आदि से पीसा जाता है, ईन्धनादि से दग्ध किया जाता है ।' (श्लोक १०७) 'वायुकायिक रूप में उत्पन्न होने पर पंखादि से आहत होना पड़ता है । ऊष्ण शीतल द्रव्यादि के सम्पर्क से मृत्यु को प्राप्त करना होता है और पूर्ववर्ती वायुकायिक जीवों द्वारा परवर्ती वायुकायिक जीवों को परस्पर के सम्पर्क से विनष्ट होना होता है । मुखादि द्वारा निर्गत वायु से बाधित होना पड़ता है और सर्पादि उसे पी जाते हैं ।' ( श्लोक १०८ - १०९ ) 'कन्द आदि दस प्रकार के वनस्पतिकायिक जीवों के रूप में जब उत्पन्न होता है तब उन्हें तोड़ा, काटा और अग्नि में दग्ध किया जाता है । उन्हें सुखाया जाता है, कूटा जाता है, घिसा जाता है । लवणादि लगाकर उन्हें जलाया जाता है - हर अवस्था में ही उन्हें खाया जाता है । अन्धड़ से छिन्न होकर वे नष्ट हो जाते हैं, अग्नि में दग्ध होकर भष्म में परिणत हो जाते हैं, जल के प्रवाह में छिन्नमूल होकर गिर जाते हैं । इसी प्रकार समस्त प्रकार की वनस्पतियां,