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धात्रियों द्वारा पालित होकर प्रभु ने बाल्यकाल व्यतीत कर यौवन प्राप्त किया । तीन सौ धनुष दीर्घ, विस्तृत स्कन्ध, जङ्घा पर्यन्त लम्बित शाखा -सी बाहुओं के कारण वे साक्षात् कल्पवृक्ष-से लगते थे । प्रभु के सौन्दर्य रूपी सलिल में रमणियों के नेत्र सर्वदा मत्स्य की भाँति क्रीड़ा करते थे । भोग कर्म अवशेष समझकर और पिता के आग्रह से उन्होंने सुन्दर राजकन्याओं के साथ विवाह कर लिया । उन्होंने राजा रूप में २९ लाख पूर्व और १२ अङ्ग तक वैजयन्त विमान की भाँति आनन्द में समय व्यतीत किया । (श्लोक १९६-२०२) स्वयं सम्बुद्ध और लोकान्तिक देवों द्वारा प्रतिबुद्ध भगवान् सुमति ने एक वर्ष व्यापी दान दिया । दीक्षा ग्रहण की अभिलाषा व्यक्त की । एक वर्ष व्यतीत हो जाने के पश्चात् सिंहासन कम्पित होने से इन्द्र और राजाओं द्वारा प्रभु का महाभिनिष्क्रमण आयोजित हुआ । प्रभु अभयंकरा पालकी पर आसीन होकर देव, असुर और राजाओं द्वारा परिवृत्त सहस्राम्रवन उद्यान में गए । वैशाख शुक्ला नवमी के अपराह्ण में चन्द्र जब मघा नक्षत्र में था उन्होंने अपने अनुयायी एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण कर ली । दीक्षा के साथ-साथ मानो दीक्षा का अनुज हो इस प्रकार प्रभु को मन:पर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। विजयपुर के राजा पद्म के घर खीरान्न ग्रहण कर प्रभु ने चार दिनों के उपवास का पारणा किया। देवताओं ने रत्नादि पांच दिव्य प्रकटित किए और राजा पद्म ने पूजा के लिए रत्न - वेदिका का निर्माण किया । विविध व्रत ग्रहण और परिषह सहन कर प्रभु ने बीस वर्षों तक प्रव्रजन किया ।
( श्लोक २०३ - २१० )
ग्राम, खान आदि में विचरण करते हुए प्रभु सहस्राम्रवन उद्यान में पहुंचे जहां उन्होंने दीक्षा ग्रहण की थी । प्रियंगु वृक्ष के नीचे एक दिन प्रभु जब ध्यान कर रहे थे तब अष्टम गुणस्थान से क्रमशः आरोहण करते हुए उन्होंने अपने घाती कर्मों को क्षय किया । चैत्र शुक्ला एकादशी को चन्द्र जब मघा नक्षत्र में अवस्थित था तब दो दिनों के उपवास के पश्चात् उन्हें उज्ज्वल केवल ज्ञान प्राप्त हुआ । (श्लोक २११-२१३) इन्द्र का सिंहासन कम्पित होने से प्रभु को केवल - ज्ञान हुआ है यह अवगत कर देव और असुर वहाँ आए और उनकी देशना के