________________
४६]
विमाता बोली-'इस विवाद की वात नगर के सभी लोग जानते हैं किन्तु कोई इसका समाधान नहीं दे पा रहा है। भला दूसरे के दुःख से कौन दुःखी होता है ? अतः अब अन्य के सूख से सूखी और अन्य के दुःख से दुःखी धर्म के प्रतिनिधि आपके सम्मुख उपस्थित हई हूं। यह मेरी अपनी सन्तान है। देखने में भी मेरे ही जैसा है और इसका लालन-पालन भी मैंने ही किया है। अतः यह सम्पत्ति भी मेरी है कारण सम्पत्ति उसी की होती है जिसकी संतान होती है।'
(श्लोक १५१-१५३) बालक की माँ बोली-'यह बालक मेरा है, सम्पत्ति भी मेरी है। वह पुत्रहीना मेरी सौत है। अर्थलाभ के लिए यह झगड़ रही है। मैंने अपनी सरलता के कारण पुत्र के लालन-पालन से उसे रोका नहीं। स्नेहवशतः तकिया लिए वह उसके पैरों तले सोयी रहती। अतः अब आप न्याय करिए। राजा का विचार अच्छा हो या बुरा वह अलंघ्य होता है।'
श्लोक १५४-१५६) उसके इस प्रकार कहने पर राजा ने सोचा-ये दोनों देखने में एक-सी ही हैं मानो एक ही वन्त पर उत्पन्न हई हों। यदि इनके चेहरे में पार्थक्य रहता तब तो बालक जिसके जैसा होता उसी का कहा जाता। किन्तु यह तो दोनों के ही अनुरूप है। बालक अभी छोटा है अतः वह बता नहीं सकता कि उसकी माँ कौन है और विमाता कौन है । जिस समय राजा इस विचार में मगन थे तभी उन्हें कहा गया कि मध्याह्न का समय हो गया है, आहारादि नित्य कर्म करने पड़े हैं। सभासदों ने भी कहा-'इन दोनों के विवाह का निर्णय हम छह महीने में भी नहीं कर पाए हैं अतः आहारादि नित्य कर्म की अवहेलना करना उपयुक्त नहीं है। इसलिए आहारादि के पश्चात् ही विचार किया जा सकता है।' राजा ने भी ऐसा ही हो' कहकर सभा विसजित कर दी।
(श्लोक १५७-१६३) आहारादि के पश्चात् राजा अन्तःपुर गए। रानी सुमंगला ने आहारादि का समय व्यतीत हो जाने पर आने का कारण पूछा। तब राजा ने दोनों सौतों के विवाद की बात बताई। यह सुनकर गर्भ के प्रभाव से उनकी मति प्रेरित होने के कारण वे बोली- महाराज स्त्रियों के विवाद को स्त्रियाँ ही सहज रूप में हल कर सकती हैं अतः इस पर विचार करने का भार आप मुझ पर छोड़ दें। राजा