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मित्र कभी मनोमुग्धकारी संगीत सुनने में, कभी सुन्दर अभिनय देखकर, कभी कहानियाँ सुनकर, कभी चित्र देखकर, कभी दिव्य सरिता में जल क्रीड़ा कर, कभी उद्यान में पुष्प चयन कर समय व्यतीत करने लगे । यहाँ आपके बन्धु क्रीड़ा के लिए आए थे जहाँ आपसे उनका मिलन हुआ । इस भाँति निष्ठुर भाग्य का चक्रान्त व्यर्थ हुआ ।' ( श्लोक २९१ - २९५ ) वकुलमति की कथा समाप्त होते ही सनत्कुमार हस्ती जैसे सरोवर से निकल आता है उसी प्रकार क्रीड़ाग्रह से बाहर आए । तदुपरान्त विद्याधरों से परिवृत होकर इन्द्र जैसे सुमेरु पर्वत पर जाता है उसी प्रकार महेन्द्र सिंह सहित वैताढ्य पर्वत पर गए । ( श्लोक २९६-२९७)
एक दिन महेन्द्रकुमार सनत्कुमार से बोले - 'मित्र, तुम्हारी इस संवृद्धि से मेरे आनन्द की सीमा नहीं है; किन्तु तुम्हारे मातापिता तुम्हारे विरह में दुःखी हैं । वे सर्वदा तुम्हें स्मरण करते हैं । तुम्हारे और मेरे प्रति उनका इतना अनुराग है कि हमलोगों जैसे किसी को देखते ही यह सनत्कुमार हैं, यह महेन्द्रसिंह है वे ऐसा सोचने लगते हैं । एतदर्थ चलो, हम हस्तिनापुर चलें । चन्द्र जैसे समुद्र को आनन्दित करता है तुस भी उन्हें वैसे ही आनन्दित करो ।' ( श्लोक २९८ - ३०१ )
महेन्द्रसिंह जब इस प्रकार बोले तब
शत्रुरूप पहाड़ के लिए
बन्धु बान्धव,
जो वज्र तुल्य हैं ऐसे उन्होंने उसी मुहूर्त्त में पत्नी, सैन्य-सामन्तों और अनुचरों से परिवृत होकर हस्तिनापुर के लिए प्रस्थान किया । उनके अधीनस्थ राजाओं के विभिन्न आकाशयानों की युति से आकाश बहुसूर्यमय लग रहा था। किसी ने उनका छत्र पकड़ा था, कोई चँवर डुला रहा था, कोई उनकी पादुका वहन किए चल रहा था, कोई ताड़ पंखा धारण किए था, किसी के हाथ में उनका ताम्बूल-पात्र था, कोई पथ बता रहा था, कोई हाथी पर चढ़ा था, कोई अश्व पर कोई रथ पर, कोई पैदल ही आकाश मार्ग से जा रहा था । ( श्लोक ३०२ - ३०७ ) मेघ जैसे ताप - क्लिष्ट मनुष्य को आनन्दित करता है उसी प्रकार सनत्कुमार ने दुःखार्त्त माता-पिता और पुरवासियों को दर्शन देकर आनन्दित किया । आनन्दमना अश्वसेन ने सनत्कुमार को