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यहाँ आए हैं। आप उनके द्वारा भेजे हए इन्द्ररथ-से इस रथ पर आरोहण कर और अस्त्र-शस्त्रादि धारण कर शत्रु-सैन्य को पराजित करिए। चन्द्रवेग और भानुवेग वायु से द्रुतगामी यान पर आ रहे हैं। वे आपके ही प्रतिरूप हैं।'
(श्लोक २५७-२६२) ____ 'उसी समय नदी सहित पश्चिम और पूर्व समुद्र की तरह चन्द्रवेग और भानुवेग अपनी सैन्यवाहिनी लेकर वहाँ उपस्थित हुए। पुष्करावर्त मेघ की तरह अशनिवेग की सेना का कोलाहल सुनाई पड़ा। उसी समय सन्ध्यावली ने आर्यपुत्र को प्रज्ञप्तिका नामक विद्या प्रदान की। कारण स्त्रियाँ पति का पक्ष ही ग्रहण करती हैं। युद्ध के लिए उद्ग्रीव आर्यपुत्र अस्त्र धारण कर रथ पर चढ़े । क्षत्रियों को युद्ध ही प्रिय होता है। चन्द्रवेग और भानुवेग एवं अन्य विद्याधरगण ने, चन्द्ररूप शत्रु-सैन्य के लिए जो राहु रूप थे, सैन्य द्वारा अशनिवेग को घेर लिया। पकड़ो-पकड़ो, मारो-मारो चिल्लाते हुए अशनिवेग की सेना दौड़ने लगी। उभय पक्ष की सेनाएँ असीम साहस से मुर्गे की तरह बार-बार ऊपर उड़कर क्रोध से आघात कर युद्ध करने लगी। उस समय युद्ध के सिंहनाद के अतिरिक्त कुछ सुनाई नहीं दे रहा था, अस्त्रों की चकमक के अलावा कुछ दिखाई नहीं दे रहा । हाथी की तरह युद्ध में कुशल वे कभी आगे कभी पीछे होकर, कभी अस्त्राघात करके कभी अस्त्राघात खाकर युद्ध करने लगे। बहुत समय तक युद्ध चलने के पश्चात् उभय दल की सेनाएँ जब क्लान्त हो गयीं तब अशनिवेग हवा की तरह द्र तगामी रथ पर चढ़कर सामने आया और विद्र प-के स्वर में हँसते-हँसते बोला-'कृतान्तगह का नवीन अतिथि वज्रवेग का वह हत्यारा कहाँ है ?' ऐसा कहकर उसने धनुष पर टंकार दी। तब उन दोनों महाशक्तिशालियों में युद्ध आरम्भ हो गया। तीर के बदले ऐसे तीर निक्षिप्त हए कि जिससे सहस्रमाली का किरण जाल भी आवृत हो गया। (श्लोक २६३-२७४)
'आर्यपुत्र और विद्याधरराज परस्पर एक दूसरे की हत्या करने को उत्सुक होकर अपनी गदा आदि से युद्ध करने लगे; किन्तु विजय किसी को नहीं मिली। उन्होंने दिव्यास्त्रों से युद्ध किया। नागबाण, गरुड़बाण, अग्णिबाण, वरुणबाण ने एक दूसरे को प्रतिहत किया।
(श्लोक २७५-२७७)