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था तभी हंस, सारस आदि की आवाज उसके कानों में पड़ी। हवा में प्रवाहित कमलगन्ध से उसने अनुमान लगाया कि कहीं समीप ही जलाशय है। मित्र से मिलन हो सकेगा सोचकर वइ राजहंस की तरह द्रुतगति से उधर बढ़ा। उसके नेत्रों से आनन्दाश्रु प्रवाहित हो रहे थे। वह जितना ही आगे बढ़ता गया उतना ही वेण और वीणा के साथ गाए गान्धार ग्राम का गीत उसके कानों में पड़ने लगा। उसने बहुमूल्य वस्त्र और अलंकार पहने तरुणियों के मध्य बैठे अपने मित्र को देखा।
(श्लोक १४७-१५३) __ मन ही मन वह सोचने लगा क्या यही मेरा प्रिय मित्र है या यह किसी का इन्द्रजाल है ? या ये सब मेरे हृदय से तो नहीं निकले हैं ? वह जब इस प्रकार सोच ही रहा था कि चारण द्वारा अमृतवर्षी यह गीत उसके कानों में पड़ा-'कुरुकुल सरिता के हंस, अश्वसेन रूप उदधि के चन्द्र, सौभाग्य में मनोभव रूप हे सनत्कुमार, तुम दोर्घजीवी बनो। विद्याधर ललनाओं की बाहुरूप लता के आश्रय रूप महिरुह, वैताढ्य पर्वत की उभय श्रेणियों पर विजय लाभ से श्री सम्पन्न, हे सनत्कुमार, तुम दीर्घजीवी हो।'
(श्लोक १५४-१५७) यह सुनकर ताप-तप्त हस्ती जिस प्रकार उदधि में प्रवेश करता है, उसी प्रकार महेन्द्र कुमार सनत्कुमार के सम्मुख जाकर उसके पैरों पर गिर पड़ा। सनत्कुमार ने भी आनन्दाश्रु प्रवाहित करते हुए तुरन्त उसे उठाकर गले से लगा लिया। इस अप्रत्याशित मिलन के कारण दोनों वर्षाकालीन मेघ की तरह आनन्दाश्रु प्रवाहित करने लगे। रोमांचित देह लिए दोनों बहुमूल्य आसन पर उपविष्ट हुए। विद्याधर तरुणियाँ आश्चर्य चकित-सी उन दोनों को देखने लगीं। तीर्थंकरों की तरह ध्यानासन में उपविष्ट योगी की तरह उनके नेत्रों की दृष्टि परस्पर केन्द्रित हो गई मानो संसार में अन्य कुछ भी नहीं है। दिव्य औषधि के प्रयोग से जैसे रोग निरामय हो जाता है उसी प्रकार सनत्कुमार के मिलन से महेन्द्र सिंह की श्रान्ति-क्लान्ति दूर हो गई। नेत्रों के आनन्दश्रु को पोंछते हुए अमृत निःस्यन्दी स्वर में सनत्कुमार महेन्द्र सिंह से
बोले