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उसने पूर्ण समुद्र के अलङ्कार रूप मगध तीर्थ की ओर प्रयाण किया । मगध तीर्थ के अधिपति तीर के फलक में लिखे नाम द्वारा सूचित होकर उसके सम्मुख उपस्थित हुए और उसकी अधीनता स्वीकार कर ली । उसने दक्षिण में वरदामपति और पश्चिम में प्रभासपति को मगधपति की भाँति जय कर लिया । ( श्लोक २२ - २७ ) तत्पश्चात् चक्री ने दक्षिण तीर पर उपस्थित होकर सिंधु देवी को जय किया । वहाँ से वैताढ्य पर्वत के निकट गए और वैताढ्य कुमार को पराजित कर उससे कर ग्रहण किया । वहाँ से वे तमिस्रा आए । तमिस्रा गुहा के द्वार-रक्षक के रूप में अवस्थित कृतमाल देव को जीत लिया । उनके आदेश से उनके सेनापति ने चर्म रत्न की सहायता से सिन्धु अतिक्रम कर पश्चिय विभाग जय कर लिया । जब सेनापति ने दण्ड रत्न की सहायता से तमिस्रा के उभय द्वारों को उन्मुक्त कर दिया तब चक्री हस्ती रत्न की पीठ पर आरूढ़ होकर स्व- सैन्य सहित तमिस्रा गुफा में प्रविष्ट हुए । हस्तीकुम्भ के दाहिने ओर रखी मणिरत्न प्रभा और कांकिणी रत्न कृत वृत्त के आलोक से दुस्तर उन्मग्ना और निमग्ना नदियों का वर्द्धकी रत्न द्वारा बनाए सेतु द्वारा पार कर उत्तर दिशा के द्वार से होकर जो कि स्वयं ही खुल गया था उस गुफा से बाहर निकले ।
( श्लोक २८ - ३५) इन्द्र जैसे असुरों को पराजित करता है वैसे ही मधवा चक्रवर्ती ने जिन्हें जीतना कठिन था ऐसे किरात और आपातों को भी जीत लिया । सेनापति के सिन्धु के पश्चिम भाग को जीत लेने पर उन्होंने स्वयं हिमचूल कुमार को पराजित कर दिया । तत्पश्चात् उन्होंने कांकिणी रत्न से ऋषभकूट के शिखर पर 'चक्रवर्ती मधवा' यह नाम खोद दिया । ( श्लोक ३६-३८ ) वहां से लौटकर वे पूर्वाभिमुख हुए । सेनापति ने गंगा का पूर्व प्रदेश जय कर लिया और उन्होंने स्वयं गंगा को वशीभूत कर लिया । इन तृतीय चक्रवर्ती ने वैताढ्य पर्वत की उभय श्रेणियों के विद्याधरों को सहज ही जय कर लिया । तत्पश्चात् चक्रवर्ती के लिए जो करणीय है उसे ज्ञात कर उन्होंने खण्डप्रपाता गुहा के द्वार पर वास करने वाले नाट्यमाल देव को जीत