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[२३५ समस्त रोगों में क्षय रोग है उसी भांति समस्त कषायों में लोभ कषाय है।
(श्लोक ३१२-३१६) ___इस संसार में लोभ का एकछत्र आधिपत्य है कारण वक्ष भी अपने तल में रखे धन को जड़ों द्वारा आवृत्त कर देता है। धन के लोभ में द्विन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जीव भी पूर्व जन्म में गाड़े धन पर मूच्छित होकर अवस्थान करते हैं। सर्प और छिपकली की तरह पंचेन्द्रिय जीव भी लोभ से अपने पूर्व भव या अन्य के मिट्टी में गाड़े धन पर आकर स्थित हो जाते हैं। पिशाच मुद्गल भूत प्रेत और यक्षादि देव लोभ के वशीभूत होकर अपने या अन्य के गाड़े धन पर आकर अधिकार जमा लेते हैं। अलङ्कार, उद्यान, वापो आदि में मूच्छित देव स्वर्ग से च्युत होकर पृथ्वा कायादि में उत्पन्न होते हैं। यहां तक कि साधु-मुनिराज जिन्होंने क्रोधादि कषायों को जीत कर उपशान्त मोह नामक चतुर्दश गुणस्थान प्राप्त कर लिया है वे भी लोभ के एक अंश मात्र रह जाने से पतित हो जाते हैं। खाद्य के लिए जिस प्रकार दो कुत्ते परस्पर झगड़ते हैं उसी प्रकार दो सहोदर भाई परस्पर धन के लिए झगड़ने लगते हैं। ग्रामीण अधिकारी और राजा खेत, ग्राम और राज्य की सीमा के लिए लोभवश एक-दूसरे की मित्रता परित्याग कर परस्पर शत्रु बन जाते हैं।
(श्लोक ३१७-३२४) 'लोभी मनुष्य स्वामी व अधिकारी को प्रसन्न करने के लिए उनके सम्मुख नट की तरह अकारण हर्ष, शोक, द्वेष, रागादि व्यक्त करते हैं। लोभ का गर्त विचित्र है। इसकी जितनी पत्ति होती है उतना ही यह बढ़ता जाता है। समुद्र को जलद्वारा पूर्ण करना फिर भी सम्भव है, किन्तु लोभ रूपी समुद्र को त्रिलोक के वैभव से पूर्ण नहीं किया जा सकता । न जाने कितने ही वस्त्र खाद्य विषय और वैभव को मनुष्य ने जन्म-जन्म में भोगा है, किन्तु क्या उसका एक कण मात्र लोभ भी उपशांत हुआ है ? यदि लोभ को ही वह छोड़ सकता तो अन्य तपों की आवश्यकता ही क्या थी ? फिर जब लोभ का ही परित्याग न कर सका तो अन्य तपस्याओं का प्रयोजन ही क्या है ? समस्त शास्त्रों का यही सार है कि बुद्धिमान मनुष्य लोभ-विजय का प्रयास करें।
(श्लोक ३२५-३३०)