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उसका पालन करता है ? किसने उनका अपमान किया है जो ऐसी अपमानजनक भाषा कहने में उन्हें लज्जा नहीं आती ? वे निश्चय ही हमारे शत्रु हैं अतः बन्धुत्व के छल से इस प्रकार हमारा अपमान कर रहे हैं । तुम्हारे प्रभु को मित्र शत्रु निरपेक्ष जो चाहे होने दो, उनके प्रति हमारी कोई श्रद्धा नहीं है जो शक्तिशाली होते हैं वे अपनी शक्ति पर ही विश्वास रखते हैं ।' ( श्लोक १५१-१५७) दूत बोला- 'हे शिव-पुत्र, यह तुम अज्ञान की भांति कह रहे हो । पितृतुल्य महाराज को शत्रु बनाकर क्या तुम सुख की कामना कर सकते हो ? हे मूर्ख राजपुत्र, राजनीति क्या है यह तुम अभी जानते नहीं हो तभी तो सूक्ष्माग्र दण्ड से उदर बिंधने की तरह शत्रु का सृजन कर रहे हो। तुमने महाराज के लिए जो कुछ कहा मैं उन्हें वह कहूंगा नहीं । अतः जो मैं कहता हूं तुम वही करो । ताकि तुम्हारे और तुम्हारे भ्राता (निशुम्भ ) के मध्य दीर्घ दिनों तक शांति रहे । नहीं तो वे तुम्हारे शत्रु हो जाएँगे । कृतान्त की तरह यदि वे क्रुद्ध हो गए तो तुम्हारा जीवन भी संशय
में पड़ जाएगा ।' ( श्लोक १५८-१६१)
यह सुनकर अत्यन्त क्रुद्ध वासुदेव बोले- 'दूत, तुम अपने जीवन से निश्चित रूप से वीतश्रद्ध हो गए हो। मिथ्या प्रपंच में कुशल तुम्हारे जैसे दूत के वाक्य विषहीन सर्प की भांति केवल फणों के द्वारा ही राजाओं को भयभीत करते हैं । जाओ, जो कुछ मैंने कहा है उसे छिपाने की कोई आवश्यकता नहीं है । सबकुछ जाकर अपने प्रभु को बता दो। वे वध योग्य हैं कारण तुम कह रहे हो वे हमारे शत्रु हो जाएँगे
।'
( श्लोक १६२-१६४) यह सुनकर दूत शीघ्र उठा और निशुम्भ के पास पहुंचकर सारा वृतान्त स्पष्टतया कह सुनाया । सब कुछ सुनकर शत्रुहन्ता निशुम्भ क्रुद्ध होकर पृथ्वी को सैन्य द्वारा आच्छादित कर अश्वपुर को रवाना हुआ । शत्रु ंजयी वासुदेव ने जब सुना निशुम्भ युद्ध के लिए आ रहा है तो वह भी अग्रज सहित सैन्य लेकर युद्ध को चला । दो मदोन्मत्त हाथी की भांति एक दूसरे को विनष्ट करने को उत्सुक निशुम्भ और पुरुषसिंह मध्यपथ में एक दूसरे के सम्मुखीन हुए । उभय पक्ष के सैन्यदल चीत्कार, धनुषों की टंकार और मुष्ठिघात की प्रतिध्वनि से स्वर्ग और मृत्यु भूमि को आलोड़ित कर प्रबल युद्ध