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माघ शुक्ला त्रयोदशी को चन्द्र जब पुष्य नक्षत्र में था तब प्रभु ने दो दिनों के उपवास के पश्चात एक हजार राजाओं सहित प्रव्रज्या ग्रहण कर ली। दूसरे दिन सोमनस नामक नगर में धर्मसिंह राजा के गह में प्रभु ने खीरान ग्रहण कर बेंले का पारणा किया। देवों ने रत्न वष्टि आदि पंच दिव्य प्रकट किए एवं राजा धर्मसिंह ने जहाँ प्रभु ने खड़े होकर पारना किया वहाँ रत्नमय वेदी का निर्माण करवाया। देह के प्रति उदासीन वायु की भांति अप्रतिहत पृथ्वीनाथ वहां से निकलकर धरती पर सर्वत्र विचरण करने लगे।
(श्लोक ६०-६३) जम्बूद्वीप के पश्चिम विदेह में अशोका नामक एक नगरी थी। वहां पुरुषवृषभ नामक एक राजा राज्य कर रहे थे। संसार से विरक्त तत्वज्ञाता धर्म-परायण उन राजा ने मुनि प्रजापाल से दीक्षा ग्रहण कर ली। कठिन तपस्या करते हुए आयुष्य पूर्ण होने पर वे सहस्रार विमान में १६ सागर की आयु लेकर जन्म ग्रहण किया।
(श्लोक ६४-६६) जब उन्होंने अपनी सोलह सागर की आयुष्य पूर्ण की उस समय भरत क्षेत्र के पोतनपुर नगर में विकट नामक राजा राज्य करते थे। हस्ती जैसे हस्ती को पराजित करता है उसी भांति युद्ध क्षेत्र में वे राजा राजसिंह द्वारा उनके अधिक शक्तिशाली होने के कारण पराजित हुए। पराजय की लज्जा के कारण अपना राज्य पुत्र को देकर मुनि अतिभूति से दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्होंने कठोर तप करके यह नियाणा किया कि मैं किसी भव में राजसिंह को पराजित कर सकू। नियाणा करने के बाद आयुष्य पूर्ण होने पर वे दो हजार वर्ष की परमायु लेकर द्वितीय स्वर्ग में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ६७-७१) राजसिंह ने दीर्घकाल तक भवभ्रमण कर भरत क्षेत्र के हरिपूरा नगर में राजा निशुम्भ के रूप में जन्म ग्रहण किया। कृष्णवर्ण पैतालीस धनुष दीर्घ दस लाख वर्ष का आयुष्य लेकर तत्पश्चात् वे पृथ्वी के अधिपति बने। भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध को क्रीड़ा करते हुए जय कर वे पाँचवें अर्द्धचक्री या प्रतिवासुदेव हुए।
(श्लोक ७२-७४) भरत क्षेत्र के अश्वपुर नामक नगर के राजा का नाम था