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२०८] होते हैं। मनुष्य मातृगर्भ से तथा तीर्थंक जरायु या अण्डों से उत्पन्न होते हैं। शेष असंज्ञी पंचेन्द्रिय विकलेन्द्रिय और एकेन्द्रिय जीव समूच्छिय रूप से उत्पन्न होते हैं। समस्त संमूच्छिम जीव और नारक जीव नपुंसक होते हैं। देवों में पुरुष और स्त्री होते हैं। मनुष्य और तिर्यंच में पुरुष स्त्री और नपुसक तीनों पाए जाते हैं ।
(श्लोक २३९-२४०) ___'समस्त जीव व्यवहारी और अव्यवहारी भेद से दो प्रकार के होते हैं। अनादि सूक्ष्म निगोद का जीव अव्यवहारी (जो कि अनादिकाल से ही उसी रूप में जन्म लेते हैं और मरते हैं, उस स्थान से अन्यत्र नहीं जाते), शेष समस्त जीव व्यवहारी (विभिन्न गतियों में भ्रमणकारी) हैं।' ___'जीवों की उत्पत्ति नौ प्रकार की योनियों से होती है । यथा सचित्त, अचित्त, मिश्र, संवृत्त, असंवृत्त, संवृत्तासंवृत्त, शीत, उष्ण और शीतोष्ण ।'
___ 'पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक इन चार प्रकार के स्थावर जीवों में प्रत्येक की सात लाख योनियां होती हैं। प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख और अनन्तकाय की चौदह लाख योनियां होती हैं। विकलेन्द्रियों की छह लाख (प्रत्येक की दो-दो लाख), मनुष्यों की चौदह लाख, नारक देव और तिर्यंच पञ्चेन्द्रियों की चार-चार लाख है। इस प्रकार समस्त जीवों की सब मिलाकर चौरासी लाख जीवयोनियां हैं। केवलज्ञानी अपने ज्ञान से इस प्रकार देखते हैं।'
'एकेन्द्रियों की सूक्ष्म और बादर द्विन्द्रियों, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, असंज्ञी और संज्ञी इन सातों के पर्याप्ति और अपर्याप्ति भेद से चौदह भेद होते हैं। इनकी मार्गनाएँ भी चौदह हैं। यथा-गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, ज्ञान, कषाय, संयम, आहार, दृष्टि, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व और संज्ञी।'
'मिथ्यात्व, सास्वादन, मिश्र, अविरत-सम्यक्दृष्टि, देश-विरत, प्रमत्त-संयत्त, अप्रमत्त-संयत्त, निवृत्ति-बादर, अनिवृत्तिबादर, सूक्ष्मसंपराय, उपशान्त-मोह, क्षीण-मोह, सयोगी-केवली और अयोगीकेवली ये चौदह गुणस्थान हैं।
(श्लोक २४१-२५१) १ 'मिथ्यात्व के उदय से जीव मिथ्या दृष्टि होता है। मिथ्यात्व