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पास जाकर दीक्षित हो गए । अपनी आयु के ६५ लाख वर्ष व्यतीत कर मृत्यु के पश्चात् वे मोक्ष चले गए ।
( श्लोक २३३ )
तृतीय सर्ग समाप्त
चतुर्थ सर्ग
सिद्धों के अनन्त चतुष्टय से सम्पन्न और संसार के समस्त प्राणियों के लिए मोक्षरूप अनन्त सुखप्रदानकारी भगवान् अनन्तनाथ तुम्हारी रक्षा करें | संसार रूपी भव समुद्र को पार करने में नौका स्वरूप भगवान् अनन्तनाथ का अब मैं जीवन वर्णन करूँगा ।
( श्लोक १-२ ) धातकी खण्ड द्वीप के पूर्व विदेह में ऐरावत नामक विजय में अरिष्ट नामक एक प्रमुख नगर था । वहां पद्मरथ नामक एक राजा राज्य करते थे । उनके बड़े-बड़े महारथ थे जो कि शत्रु-रथियों के रथों के सम्मुख पर्वत तुल्य दुर्भेद्य थे । समस्त शत्रुओं को पराजित और समस्त पृथ्वी को अपने अधीन कर वह राज्यलक्ष्मी को तृणवत् समझने लगा और मोक्षश्री को प्राप्त करने के लिए उद्ग्रीव हो उठा । उपवन विहार, जलकेलि, गायकों के सुमधुर संगीत - श्रवण, हस्ती - अश्वादि पशुओं का नानाविध क्रीड़ादर्शन, नाट्य और दसविध नाटक सह बसन्तोत्सव एवं कौमुदी आदि बहुविध उत्सव अवलोकन, स्वर्ग के विमान से प्रासाद में निवास, नाना प्रकार के वस्त्रालंकार परिधान और सुगन्ध द्रव्यादि का लेपन करने में धीरे-धीरे उनकी रुचि समाप्त हो गई। पहले भी इन सबके प्रति उनमें रुचि थी ऐसा भी नहीं था । केवल लोक व्यवहार के लिए वे इन कार्यों को करते थे। कुछ दिन इसी भांति व्यतीत होने पर चित्तरक्ष मुनि से उन्होंने दीक्षा ले ली । बीस स्थानक और अर्हत् - उपासना कर उन्होंने तीर्थंकर गोत्र कर्म उपार्जन किया और मृत्यु के पश्चात् प्राणत देवलोक के पुष्पोत्तर विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए ।
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( श्लोक ३-११)
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध में अयोध्या नामक एक नगरी थी जो कि इक्ष्वाकु कुल रूप पर्वत की आधारशिला थी । निर्मल जलपूर्ण परिखा समन्वित वह नगरी मेखला परिहित रति